'मौत का सौदागर' से 'जहर की खेती'-तक की शीर्ष से हुई अभिव्यक्ति, तथा उसपर केंद्रीय चुनाव आयोग का मौन, का ही परिणाम है, किसी प्रत्याशी की यह बहक, कि नरेन्द्र मोदी को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देंगे. देश के जिस क्षेत्र में ऐसी प्रगल्भता भरी अभिव्यक्ति हुई है, उसे सदैव ‘संवदेनशील’माना गया है | यदि अब भी कार्यवाही नहीं होती, तो स्थिति बिगड़ने का दोषी कौन ?
लोकसभा चुनाव की तिथियां घोषित होने के लगभग दो वर्ष पूर्व से देश में यह माहौल बन रहा था कि इस बार के निर्वाचन में सुशासन, महंगाई और भ्रष्टाचार की समस्याओं के कारण आर्थिक विकास मुख्य मुद्दा रहेगा. भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों को जैसा व्यापक जन समर्थन मिला था, उससे यह स्पष्ट हो रहा था कि जनता किसी भी रूप में-चाहे पद का दुरुपयोग हो, या फिर कमीशनखोरी-भ्रष्टाचारियों को सत्ता से बेदखल कर देने के मूड में है. जनता को तब भारी निराशा हुई, जब इस मानसिकता को पनपाने में मुख्य भूमिका निभाने वालों में सत्ता की लोलुपता ने बिखराव पैदा किया. लेकिन इसी बीच एक व्यक्ति फिर उभर कर सामने आया, जिसने विकास को चुनावी मुद्दा बना दिया. उस व्यक्ति के अभियान को पिछले डेढ़ दशक से घृणा और हिंसा की राजनीतिक करने के लिये देश-विदेश में ‘अपराधी’ के रूप में खड़ा करने की कोशिश की जा रही थी. इन लोगों का अनुमान था कि उनका विकास का मुद्दा चल नहीं पायेगा क्योंकि उनके विरुद्ध घृणा और हिंसा की राजनीति करने के आरोपों का व्यापक प्रभाव है. लेकिन विकास का मुद्दा परवान चढ़ता गया. यही नहीं, लोगों में यह विश्वास भी बढ़ता गया कि देश के विकास की सकारात्मक सोच इसी व्यक्ति में है. उसे मौत का सौदागर आदि से संबोधित करने के प्रतिफल से सबक सीखने के बजाय उसके प्रति घृणा की भावना को प्रखर बनाने के लिये न्यायालय तक के फैसलों का मान नहीं किया गया. विकास और सुशासन के मामले में केंद्रीय सरकार की संस्थाओं द्वारा सराहे जाने के बावजूद सरकार चलाने वालों ने उसके शासन को सब प्रकार के अवगुणों की खान साबित करने के लिये ‘सांप्रदायिकता बनाम सेक्युलरिज्म’ का सहारा लिया.
सेक्युलरिज्म के नाम पर जिस प्रकार के संबोधनों से अनर्गल आरोपों की जैसी बौछार की गई, उसका ही परिणाम ‘बोटी-बोटी काट डालने’ की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आये. आश्चर्य तो यह है कि जो समुदाय वोट बैंक की राजनीति से निकलने का दावा कर रहा था, जो हर मामले में निन्दा अथवा फतवा जारी करने का आदी है, वह इस अभिव्यक्ति पर मौन है. शायद उसके इस मौन समर्थन से ही प्रोत्साहन मिला होगा. एक ओर, नेता यह कह रहे हैं कि ऐसी अभिव्यक्ति हमारी पार्टी की नीति नहीं है, दूसरी ओर, उसे उम्मीदवारी से बेदखल करने के बजाय उसके समर्थन में लामबंद हो रहे हैं. यह अभिव्यक्ति कुछ महीने पहले की है, जब वह दूसरी पार्टी में था. लेकिन ऐसी आग उगलने का समय कुछ भी रहा हो, वह समाज को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और वैमनस्य से ही झुलसाएगी. जो सेकुलर तबका मुतालिक को भाजपा में शामिल करने पर उबल पड़ा था, वह इमरान मसूद के मामले में मौन क्यों हैं? किसी के एक ‘अपराध’ को हजारों ‘अपराध’ करने वालों से अधिक महत्वपूर्ण बताए जाने का एक ही उद्देश्य है. एक वर्ग विशेष में भय पैदा कर उन्हें अपना पक्षधर बनाना. देश इस समय अनेक प्रकार की अनास्थाओं के भंवर में फंसा है. विकास के नारे ने अनास्था के इस भंवर से बाहर निकलने की एक आशा पैदा की है. घोर निराशा एवं विघटन के माहौल में दुष्प्रचार के बीच अडिग खड़े रहने वाले विकास मुद्दे के वाहक पर जितना ही प्रहार किया जा रहा है, वह उतना ही सशक्त होता जा रहा है. क्यों? क्योंकि जनता को उसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं दिखाई देता. इस जनविश्वास को डिगाने के लिये विभेदकारी और हिंसात्मक प्रवृत्ति को उभारने का प्रयास देशद्रोह से कम नहीं है. अगले कुछ दिनों में यह प्रवृत्ति और पनपेगी, ऐसा इस आधार पर कहा जा सकता है कि विकास को चुनावी मुद्दा बनाने वाले इस व्यक्ति पर सभी राजनीतिक पक्ष हमलावर हो चुके हैं. उन्हें एक साथ लामबंद करने का प्रयास यद्यपि सफल नहीं हो सका है, लेकिन समाज के एक वर्ग को जो भयदोहन का शिकार कर रहा है, फिर से उसी दिशा में लौटने की बाध्यता का शिकार होने जा रहा है. इस बार का चुनावी माहौल कुछ ऐसा है कि जिसमें अपनी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति अनुकूलता पैदा करने से अधिक दूसरों की विश्वसनीयता को संदिग्ध साबित करने की होड़ मची है. मतदाताओं को, जो वास्तव में चुनाव-परिणाम के असली भुक्तभोगी होंगे, सोच समझकर निर्णय करना होगा.
मतदाताओं को अपने विवेक का प्रयोग करते हुए दुष्प्रचार की आंधी में उड़ने या मुद्दों पर दृढ़ता से कायम रहने का निर्णय करना होगा क्योंकि उसके निर्णय पर ही पूरे देश की सुखद संभावनायें निर्भर हैं. निराशा, हताशा, प्रलोभन, जातीय, वर्गीय और क्षेत्रीय भावनाओं से ऊपर एक राष्ट्र की भावना से ही बिखराव रोका जा सकता है. किसी व्यक्ति को काटकर टुकड़े-टुकड़े करने की अभिव्यक्ति का निहितार्थ समझना होगा और यह भी कि इसके प्रति किसकी कैसी अभिव्यक्ति हुई है या नहीं हुई है.
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो |
छद्म वेश में फिर आया रावण |
संस्कृति में ही हमारे प्राण है |
भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व || -तिलक
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