सत्यदर्पण:-

सत्यदर्पण:- कलयुग का झूठ सफ़ेद, सत्य काला क्यों हो गया है ?-गोरे अंग्रेज़ गए काले अंग्रेज़ रह गए। जो उनके राज में न हो सका पूरा, मैकाले के उस अधूरे को 60 वर्ष में पूरा करेंगे उसके साले। विश्व की सर्वश्रेष्ठ उस संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है, देश को लूटा जा रहा है। दिन के प्रकाश में सबके सामने आता सफेद झूठ; और अंधकार में लुप्त सच।

भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो | मानवतावादी वेश में आया रावण | संस्कृति में ही हमारे प्राण है | भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व | -तिलक 7531949051, 09911111611, 9999777358.

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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

श्री राम नवमी की कोटि कोटि हिदू समाज सहित आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.....

श्री राम नवमी की कोटि कोटि हिदू समाज सहित आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.....
तिलक राज रेलन,  संपादक युग दर्पण , 09911111611
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक

रविवार, 3 अप्रैल 2011

नव संवत 2068 की शुभकामनाएं।

उमंग उत्साह चाहे हो जितना दिखाया;
विक्रमी संवत बढ़ चढ़ के मनाएं,
चैत्र के नवरात्रे जब जब आयें
घर घर सजाएँ उमंग के दीपक जलाएं;
खुशियों से ब्रहमांड तक को महकाएं
यह केवल एक कैलेंडर नहीं, प्रकृति से सम्बन्ध है;
इसी दिन हुआ सृष्टि का आरंभ है
तदनुसार 4 अप्रैल 2011, इस धरा की 1955885112वीं वर्षगांठ तथा इसी दिन सृष्टि का शुभारंभ हुआ.आज के दिन का महात्य -
1.भगवन राम का राज्याभिषेक. 2.युधिस्ठिर संबत की शुरूवात.3 .बिक्रमादित्य का दिग्विजय. 4.बासंतिक नवरात्र की शुरूवात.5 .शिवाजी महाराज की राज्याभिषेक.6 .राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवर जी का जन्मदिन. 
ईश्वर हम सबको ऐसी इच्छा शक्ति प्रदान करे जिससे हम अखंड माँ भारती को जगदम्बा का स्वरुप प्रदान करे, धरती मां पर छाये वैश्विक ताप रुपी दानव को परास्त करे... और सनातन धर्म का कल्याण हो..
युगदर्पण परिवार की ओर से अखिल विश्व में फैले हिन्दू समाज सहित,चरअचर सभी के लिए गुडी पडवा, उगादी,
नव संवत 2068 की शुभकामनाएं
जय भबानी ,जय श्री राम,भारत माता की जय.
तिलक संपादक युगदर्पण. .
(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें संपर्कसूत्र-09911111611,9911145678,9540007993. www.deshkimitti.feedcluster.com/ http://www.deshkimitti.blogspot.com/
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक

मंगलवार, 8 मार्च 2011

आईसीएसई ने शहिद भगत सिंह को 'आतंकवादी', बताया, अदालत ने आपत्ति जताई

आईसीएसई ने शहिद भगत सिंह को 'आतंकवादी', बताया, अदालत ने आपत्ति जताई 

दिल्ली की एक अदालत ने माध्यमिक शिक्षा (आईसीएसई) के भारतीय सर्टिफिकेट संस्थान को निर्देश दिया है कि अगले शैक्षिक सत्र से इतिहास व समाज शास्त्र की पुस्तकों में स्वतंत्रता सैनानियों के लिए अपमानसूचक संदर्भों को हटा दें. आतंकवाद के पुनरुद्धार - - गोयल ब्रदर्स प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और डी.एन. कुंद्रा द्वारा लिखित पुस्तक में एक अध्याय है जिसमें बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल को "आतंकवादियों और चरमपंथियों" के रूप में दर्शाया गया है, जब कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को "आतंकवादियों" के रूप में . कोर्ट चाहता है इन नेताओं को राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों बुलाया जाना चाहिए. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश इंदरजीत सिंह ने भी गलत जानकारी के साथ पुस्तक प्रकाशित करने से आईसीएसई को रोका. जबकि महाराष्ट्र में 118 आईसीएसई स्कूल हैं, मुंबई और दिल्ली में 60 , तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 30 है. महाराष्ट्र से 1 लाख से अधिक छात्र आईसीएसई बोर्ड को चुनते हैं. अदालत का आदेश, दीनानाथ बत्रा, शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के राष्ट्रीय संयोजक और अन्य की एक याचिका में, कक्षा 10 इतिहास और नागरिक शास्त्र भाग-II में दी गई अपमानसूचक जानकारी हटाने की मांग पर आया था. याचिकाकर्ताओं ने आईसीएसई को तत्काल प्रभाव से पुस्तकों से भ्रामक जानकारी के रूप में युवाओं के मन को विषाक्त करती शिक्षण को रोकने के लिए अदालत का प्रत्यक्ष अनुरोध किया था. जिन्होंने हमारे देश और लोगों के लिए अपने प्राणों कि आहुति देदी जब उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए अपमानसूचक, अपमानजनक, अपमान और आपत्तिजनक उल्लेख किया जाता, उसकी भाषा से "हम गहराई से व्यथित हैं. , उनकी याचिका पढ़ता है यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भी, पाठ्यक्रम सामग्री से हमारे ऐतिहासिक अतीत के बारे में इस तरह के आपत्तिजनक और अपमान के अंश को हटाया नहीं गया है ".

हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक

मंगलवार, 1 मार्च 2011

HC notice to Rahul Gandhi on missing girl- rediff.com

HC notice to Rahul Gandhi on missing girl- rediff.com

March 01, 2011 20:45 IST
The Lucknow [ Images ] bench of Allahabad high  court on Tuesday issued notice to Congress general secretary Rahul Gandhi [ Images ] on a petition seeking information about the whereabouts of a missing girl and her family.

The girl and her family are alleged to be "untraceable" ever since they called on Rahul during one of his visit to his parliamentary constituency, Amethi on December 13, 2006.

Moving a petition on behalf of the family, Kishore Samrite, former Samajwadi Party MLA from Madhya Pradesh [ Images], has accused the Congress celebrity and his five foreigner friends of indulging in criminal assault on the 24-year-old Sukanya Singh.

Claiming to have learnt this from some news website, the petitioner has stated, "I was moved by the news. So I came all the way from my home in Balaghat, Madhya Pradesh to Amethi where I found the girl's house locked. Local villagers were tight-lipped about the whereabouts of the family."

He has, therefore, sought the intervention of the Allahabad high court "to issue a writ of Habeas Corpus to Rahul Gandhi to produce the missing girl Sukanya, her father Balram Singh and mother Savitri Singh."
While issuing the notice, a single judge bench comprising Justice SN Shukla did not fix any date for hearing the case, the petitioner's advocate Surya Mani Raikwar told rediff.comभारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

जो मीडिया को पूछना तो चाहिए लेकिन वो पूछेगी नहीं

जो मीडिया को पूछना तो चाहिए लेकिन वो पूछेगी नहीं

मनमोहन सिंह का दूसरा प्रेस कांफ्रेंस. महान संपादक मंडल वहाँ उपस्थित था, वैसे तो उसका धर्म प्रश्न रुपी रसायन से सियार के पूँछ का रंग उतारकर जनता के सामने लाना था लेकिन अपने चरित्र और स्वाभाव के अनुसार इन लोगो ने सियार के रंग को और पक्का करने की असफल कोशिश की और मीडिया तो खैर कांग्रेस की प्रवक्ता हीं है. कोई व्यक्ति ऐसा कैसे कह सकता है कि जब भी राहुल चाहें, वे प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे देंगे. वह कैसे भूल सकते हैं कि वे जनता के द्वारा नियुक्त कि गए प्रधानमंत्री हैं न कि रोम वाली गोरी मैडम के द्वारा. यही वो सवाल है जो मीडिया को पूछना तो चाहिए लेकिन वो पूछेगी नहीं.
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि डीएमके और कांग्रेस का गठबंधन चुनाव के पश्चात नहीं हुआ है बल्कि यह चुनाव पूर्व गठबंधन है. अर्थात मनमोहन सिंह जनता के पास जनादेश मांगने करूणानिधि को लेकर हीं गए थे. और उन्हें पूर्ण बहुमत मिला था. फिर यह रोना क्यों कि गठबंधन की सरकार है इसलिए देश लुटाने कि स्वतंत्रता है? 2004 के कांग्रेस-डीएमके की डील को मनमोहन सिंह ने हीं अंतिम रूप दिया था और एक तरह से वे इस बेमेल समझौते के आर्किटेक्ट थे. बेमेल इसलिए कि इन्द्र कुमार गुजराल कि शिशु सरकार इसलिए गयी कि डीएमके के नेताओं पर राजिव गाँधी के हत्या की साजिश का आरोप था और डीएमके का जन्म हीं कांग्रेस के कथित उत्तर भारतीय राजनीति के विरुद्ध हुआ था.
अर्थनीति को लेकर भी मनमोहन कोई अटल सोच रखते हों ऐसा नहीं है. इंदिरा, राजीव और चंद्रशेखर के समय में वे समजवादी थे तो नरसिम्हा के दौर  में उदारवादी बने और अब सोनिया माइनो (गाँधी) के दौर में पूंजीवादी हो गए हैं.
कहने का तात्पर्य यह कि ऐसा कोई भी उचित कारण, उद्देश्य अथवा परिस्थिति नहीं नजर आता है जिसके लिए मनमोहन को ए. राजा को 1,72,000,000,00,00 रुपये लूटने कि छूट दे देनी चाहिए. आखिर मनमोहन यह कैसे भूल सकते हैं कि वे इंडिया के साथ-साथ एक ऐसे भारत के प्रधान मंत्री भी हैं जहाँ कि 70 प्रतिशत जनता, उन्ही के सरकार के आंकड़ों के अनुसार 20 रुपये प्रतिदिन के आय पर गुजारा करती है. और फिर 2G अकेला तो नहीं है उसके साथ श्री कलमाड़ी जी कॉमनवेल्थ घोटाला से लेकर मनरेगा तक में लूट भी तो शामिल हैं. और नवीनतम अलंकरण तो देवास के साथ हुआ करार है जिसमे प्रधानमंत्री सीधे तौर पर शामिल हैं.
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने एक समाचार चैनल से बातचित में कहा कि प्रधानमंत्री सादगी और निश्चलता का चादर ओढ़े है ताकि इन घोटालों के दाग उनपर न पड़े. मैं प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा हीं हो, वरना जितना सरल, विनम्र और सात्विक उन्हें बताया जाता है यदि वे वैसे हीं हैं तो इश्वर हीं जानता है कि वे अमेरिका और चीन के घाघ राष्ट्रपतियों से क्या बात करते होंगे.
देश में ऐसी दुर्भाग्यजनक परिस्थिति स्वतंत्रता के पश्चात कभी नहीं आई. यहाँ तक कि चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर के ज़माने में भी नहीं. 120 करोड जनसँख्या वाला देश जैसे नेतृत्वविहीन है. कहने को एक प्रधानमंत्री तो है लेकिन उसकी जवाबदेही देश को न होकर सोनिया माइनो (गाँधी) को है. और यह स्वाभाविक हीं है सभी लोगो की जवाबदेही तो अपने नियोक्ता के प्रति हीं होती है न....तो मनमोहन की भी है.
जब राजिव गाँधी प्रधानमंत्री बने थे तो उने मिस्टर क्लीन का नाम दिया गया था लेकिन मात्र 63 करोड के बोफोर्स घोटाले में ऐसे बदनाम हुए कि भ्रष्टाचार के कारण चुनाव हारने वाले पहले प्रधानमंत्री बने. और उस दौर में यह सारी सच्चाई सामने आई तो रामनाथ गोयंका जैसे साहसी अखबार मालिक और जनसत्ता के प्रभास जोशी जैसे ईमानदार संपादक/पत्रकार के कारण. स्पष्ट है, श्री लाल बहादुर शास्त्री के बाद अथवा उनसे भी अधिक ईमानदार प्रधानमंत्री होने का उनकी पार्टी का, मीडिया का और यहाँ तक कि विपक्ष का भी, दावा पूरी तरह खोखला है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि इस दावे कि पोल कौन खोले?
लेकिन यहाँ तो बरखा दत्त, वीर संघवी और प्रभु चावला जैसों की बयार और बहार है जिनका पेशा हीं सत्ता कि दलाली है. ऐसे में उन्हें नंगा कौन करे जो कालिख के ऊपर झक्क खादी लगाये हैं?
यही सत्य है, सच्चाई यही है
वर्तमान पत्रकारिता का ही विकल्प देने का प्रयास विगत 10 वर्ष से चल रहा है,

एक सार्थक पहल मीडिया के क्षेत्र में राष्ट्रीय साप्ताहिक युग दर्पण संपादक तिलक 09911111611

भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा',

'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा', पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, महान चिंतक और संगठक थे व भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति उपाध्याय जी की राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी गहरी अभिरुचि थी। केवल एक बैठक में ही उन्होंने 'चंद्रगुप्त नाटक' लिख डाला था। हिंदी और अंग्रेजी के उनके लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे।
चित्र:Pt. Deendayal upadhyay.pngजीवन परिचय:- दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था। इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था। माता रामप्यारी धार्मिक वृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम शिवदयाल रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने बच्चों को ननिहाल भेज दिया। उस समय उनके नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। 3 वर्ष की निर्बोध आयु में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये । पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक रुग्न रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग लग गया।
8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल आयु में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। उपाध्याय जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग शिक्षा प्राप्त की। बी.एस-सी., बी.टी. करने के बाद उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे। अत: कालेज छोड़ने के तुरंत बाद वे उक्त संस्था के प्रचारक बना दिए गए और एकनिष्ठ भाव से अपने दल का संगठन कार्य करने लगे। वर्ष 1951 में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके मंत्री बनाए गए। दो वर्ष बाद 1953 में उपाध्याय जी अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसंबर, 1967) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 11 फरवरी, 1968 की रात में रेलयात्रा करते उनकी हत्या कर दी गई। वे मूलत: एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता व दीनदयालजी भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प 'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा थे।
उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्ममानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। प्रस्तुत है उनके विचारों पर आधारित एक प्रेरणास्पद लेख :
जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय का स्थान भारतीय चिंतन परंपरा में काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय चिंतन परंपरा में उनकी महत्ता इसलिए है कि उन्होंने पश्चिम के खंडित दर्शन के स्थान पर भारतीय जीवन पध्दति में समाहित एकात्म मानववाद के दर्शन को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया है।
 पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विकास की अवधारणा पश्चिमी अवधारणा से बिलकुल विपरीत है। इतना तो सब मानते हैं कि मानव जीवन के समस्त क्रियाकलापों का उद्देश्य सुख की प्राप्ति है और मानव के यह क्रियाकलाप ही उसके विकास का रास्ता है। पश्चिम के लोग और शायद हमारे देश के नीति निर्धारक भी यह मानते हैं कि जहां ज्यादा उपभोग होते हैं वहां ज्यादा सुख होता है और वही विकास की प्रतीक होता है। परंतु पंडित दीनदयाल उपाध्याय उपभोग या सुख को विकास का पर्याय नहीं मानते थे। वे इसके लिए एक अत्यंत सुंदर उदाहरण दिया करते थे। वह कहते थे कि व्यक्ति को गुलाब जामुन खाना अच्छा लगता है। व्यक्ति को लगता है कि गुलाब जामुन खाने से सुख प्राप्त हो रहा है। किन्तु मान लीजिये कि जब व्यक्ति गुलाब जामुन खा रहा हो तो उसके पास उसके किसी परिजन के देहांत की सुचना आ जाए। तब व्यक्ति भी वही रहेगा और उसके हाथ में वही गुलाब जामुन रहेगा फिर भी सुख उसके पास नहीं होगा। यदि गुलाब जामुन में ही सुख है तो फिर उस समय भी व्यक्ति को सुख प्राप्त होना चाहिए था। किन्तु ऐसा होता नहीं है।
 पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि मन की स्थिति ही सुख की अवधारक है। मन पर नियंत्रण ही वास्तविक विकास है। वह स्पष्ट तौर पर कहते थे कि उपभोग के विकास का रास्ता राक्षसत्व की और जाता है और मन को नियंत्रित करने का विकास का रास्ता देवत्व की ओर जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस देवत्व के रास्ते का अनुसंधान कर रहे थे । परंतु यह ठीक है कि यह नया रास्ता नहीं था। भारतीय साधु संत तथा सामान्य जन हजारों-हजारों वर्षों से इसकी साधना कर रहे थे । महात्मा गांधी भी एक सीमा तक उपभोग के विरुद्ध थे ।
मनुष्य की जितनी भौतिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति का महत्व को भारतीय चिंतन ने स्वीकार किया है, परंतु उसे सर्वस्व नहीं माना। मनुष्य के शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए और उसकी इच्छाओं व कामनाओं की संतुष्टि और उसके सर्वांगीण विकास के लिए भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय की जो अवधारणा है पंडित दीनदयाल उपाध्याय उसे आज के युग में भारत के समग्र विकास का मूल आधार मानते थे । पुरुषार्थ के यह चार अवधारणाएं है- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। पुरुषार्थ का अर्थ है उन कर्मों से है जिनसे पुरुषत्व र्साथक हो। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की कामना मनुष्य में स्वाभविक होती है और उनके पालन से उसको आनंद प्राप्त होता है।
 मनुष्य की भौतिक आवश्यकता व अन्य आवश्यकताओं को पश्चिम की दृष्टि में सुख माना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण रखना आवश्यक है और धर्म के नियंत्रण से ही मोक्ष पुरुषार्थ प्राप्त हो सकता है। यद्यपि भारतीय संस्कृति में मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है. तो भी अकेले उसके लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का कल्याण नहीं होता। वास्तव में अन्य पुरुषार्थ की अवहेलना करने वाला कभी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।
 इसी प्रकार धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है किन्तु 3 अन्य पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक व पोषक हैं। यदि व्यापार भी करना है तो मनुष्य को सदाचरण, संयम, त्याग, तपस्या, अक्रोध, क्षमा, धृति, सत्य आदि धर्म के विभिन्न लक्षणों का निर्वाह करना पडेगा। बिना इन गुणों के पैसा कमाया नहीं जा सकता। व्यापार करने वाले पश्चिम के लोगों ने कहा कि 'आनेस्टी इज द बेस्ट पालीसी' अर्थात सत्य निष्ठा ही श्रेष्ठ नीति है। भारतीय चिंतन के अनुसार आनेस्टी इज नट ए पालीसी बट प्रिसिंपल अर्थात सत्यनिष्ठा हमारे लिए नीति नहीं है बल्कि सिध्दांत है। यही धर्म है और अर्थ और काम का पुरुषार्थ धर्म के आधार पर चलता है। राज्य का आधार भी हमने धर्म को ही माना है। अकेली दंडनीति राज्य को नहीं चला सकती। समाज में धर्म न हो तो दंड नहीं टिकेगा। काम पुरुषार्थ भी धर्म के सहारे सधता है। भोजन उपलब्ध होने पर कब, कहां, कितना कैसा उपयोग हो यह धर्म तय करेगा। अन्यथा रोगी यदि स्वस्थ्य व्यक्ति का भोजन करेगा स्वस्थ व्यक्ति ने रोगी का भोजन किया तो दोनों का अकल्याण होगा। मनुष्य की मनमानी रोकने को रोकने के लिए धर्म सहायक होता है और धर्म का इन अर्थ और काम पर नियंत्रण को सही माना गया है
 पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है। एक सुभाषित आता है- बुभुक्षित: किं न करोति पापं, क्षीणा जना: निष्करुणा: भवन्ति। अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है। विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीडित हो कर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर के कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था। हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है। इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है ।
 पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ का अभाव के समान अर्थ का प्रभाव भी धर्म का घातक होता है। जब व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न होकर साध्य बन जाएं तथा जीवन के सभी विभुतियां अर्थ से ही प्राप्त हों तो अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और अर्थ संचय के लिए व्यक्ति नानाविध पाप करता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अधिक धन हो तो उसके विलासी बन जाने की अधिक संभावना है ।
पश्चिम में व्यक्ति की जीवन को टुकडे-टुकडे में विचार किया जबकि भारतीय चिंतन में व्यक्ति के जीवन का पूर्णता के साथ संकलित विचार किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार हमारे चिंतन में व्यक्ति के शरीर, मन बुध्दि और आत्मा सभी का विकास करने का उद्देश्य रखा है। उसकी सभी भूख मिटाने की व्यवस्था है। किन्तु यह ध्यान रखा कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दें और दूसरे के मिटाने का मार्ग न बंद कर दें। इसलिए चारों पुरुषार्थों को संकलित विचार किया गया है। यह पूर्ण मानव तथा एकात्ममानव की कल्पना है जो हमारे आराध्य तथा आराधना का साधन दोंनों ही हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिम के खंडित अवधारणा के विपरीत एकात्म मानव की अवधारणा पर जोर दिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उपाध्याय जी के इस चिंतन को व्यावहरिक स्तर पर उतारने का प्रयास किया जाए ।
 (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)
पूरा परिवेश पश्चिमकी भेंट चढ़ गया है.उसे संस्कारित,योग,आयुर्वेद का अनुसरण कर हम अपने जीवन को उचित शैली में ढाल सकते हैं!संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व !
आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

.जब तक 'अंग्रेजी' राज रहेगा, स्वतंत्र भारत सपना रहेगा ­. . . . . . . . . . . . . . . . . .. . विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाइस मार्शल)

भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
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1947 तक हमारा हृदय परतंत्र नहीं था, बाहर से हम परतंत्र अवश्य थे। 1947 के बाद हम बाहर से अवश्य स्वतंत्र हो गए हैं, पर हृदय अंग्रेजी का, भोगवादी सभ्यता का गुलाम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी पर भी यद्यपि अंग्रेजी लादी गई थी, किन्तु वह पीढ़ी उसे विदेशी भाषा ही मानती थी। स्वतंत्रता पश्चात की पीढ़ी ने, अपने प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश के अनुसार, अंग्रेजी को न केवल अपना माना वरन विकास के लिये भी पश्चिम के अनुकरण को अनिवार्य माना। महात्मा गाँधी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में दृढ़ता पूर्वक कहते हैं कि, ‘वही लोग अंग्रेजों के गुलाम हैं जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, अपराध आदि बढ़े हैं।’ हमारे प्रधानमंत्री नेहरू ने गाँधी के गहन गम्भीर कथनों को नहीं माना, क्योंकि वे स्वयं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में थे। और ऐसी अंग्रेजी शिक्षा भारत में पाश्चात्य जीवन­मूल्य ही लाई ­ भोगवाद तथा अहंवाद लाई, मानसिक गुलामी लाई जिसका स्पष्ट प्रभाव लगभग 1975 से बढ़ते बढ़ते २०१० में विकराल रूप धारण कर लेता है। समाचार पत्रों में प्रकाशित घटनाएं विद्यार्थियों और शिक्षकों में बढ़ते भयंकर अपराध उपरोक्त कथनों के प्रमाण हैं।


हृदय या मस्तिष्क की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आखिर हमें स्वयं को जीवन मूल्य सिखाना ही पड़ते हैं, चाहे जिस भाषा में सीख लें। और पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनके सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें? वैसे तो आसान यही है कि हम उनका अनुसरण करें। किन्तु इस निर्णय के पहले हमें सफ़लता शब्द का अर्थ गहराई से समझना होगा। आज की पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है, उनकी सफलता आप उनके भोग के संसाधनों से ही तो नाप रहे हैं सुख से तो नहीं! क्या सुख को भोग के संसाधनों से नापा जाना चाहिये? भोग तो हमें करना ही है और क्या भोग में सुख नहीं है? अब हमें भोग और भोगवाद में अन्तर समझना पड़ेगा। जीवन के लिये आवश्यक उपभोग करना उचित भोग है। भोग को सुख मानते हुए, भोगवादी सभ्यता में अपने लिये सर्वाधिक सुख चाहते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, क्योंकि भोग तो व्यक्ति स्वयं अपने लिये ही करता है, कोई अन्य उसके लिये भोग नहीं कर सकता ! परिवार का प्रत्येक सदस्य भी, और इस तरह परिवार तथा समाज विखंडित हो जाता है क्योंकि अब सभी सदस्य अपने लिये ही सर्वाधिक भोग चाहते हैं। जब टूटते हैं परिवार, तो दुख ही बढ़ता है लगातार। जब जनता में और शासकों में अलगाव हो, मंत्रियों तथा उनके सलाहकार अधिकारियों में; पति और पत्नियों में; पुरुष और महिलाओं में; प्रौढ़, यौवा तथा किशोरों में; शिक्षकों और विद्यार्थियों आदि आदि में अलगाव हो, भोग के लिये प्रतिस्पर्धा हो, या व्यावसायिक लेन-देन हो तब शान्ति और सुख तो नहीं हो सकता। जब मात्र लाभ ही व्यवसाय या उद्योग का प्रमुख उद्देश्य हो तब शक्तिशाली अन्य का शोषण ही तो करेगा, इसमें न तो जैन्डर आता है और न वर्ग( क्लास) । पुरुष पुरुष का, महिला महिला का, दलित दलित का अर्थात अधिक शक्तिशाली कम शक्तिशाली का अपने सुखभोग के लिये शोषण करेगा। आज बड़ी बड़ी कम्पनियां अपने सभी कर्मचारियों का शोषण कर रही‌ हैं यद्यपि लगता है कि वे उऩ्हें अधिक वेतन तो दे रही‌ हैं। इसलिये क्या आश्चर्य कि सुख की चाह में भोग तो बढ़ रहा है किन्तु सुख नहीं।


भारतीय संस्कृति को दीर्घकालीन चिन्तन, मनन तथा अनुभवों से सुख का अर्थ ज्ञात है। तभी वे ऋषि त्याग­पूर्वक भोग का ( ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः ­ ईशावास्य उपनिषद) मंत्र देते हैं। महाविद्वान तथा बलवान रावण अनियंत्रित भोगेच्छा के कारण ही तो राक्षस था। ‘रावयति इति रावणः’ अर्थात जो रूलाता है वह रावण है, भोगवाद भी अन्ततः रुलाता है, प्रारम्भ में चाहे लगे कि सुख दे रहा है। यदि आप भोगवादी राक्षस नहीं बनना चाहते तो अंग्रेजी की गुलामी छोड़ें, सुखपूर्वक स्वतंत्र रहना चाहते हैं तो भारतीय भाषाओं में सारी शिक्षा ही न ग्रहण करें, वरन इन में अपना जीवन जियें। यह न भूलें कि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वाहन भाषा तथा साहित्य है। संस्कृति की स्वतंत्रता ही सच्ची स्वतंत्रता है। पहले मैं तुलसीदास की इस चौपाई को ­ ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।’ सत्य मानता था। किन्तु मैं आज देख रहा हूं कि अंग्रेजी भक्त इंडियन, सपने ही में सुखी है। आप तुरंत कहेंगे कि बिना अंग्रेज़ी के तो हम पिछड़े रहेंगे, गरीब रहेंगे । इस पर विचार करें।


यदि आप किसी अंग्रेज से या अमेरिकी से प्रश्न करें कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा कितनी सार्थक है तब उसका उत्तर होगा बहुत ही सार्थक क्योंकि भारत उनके लिये अति उत्तम बाजार बन गया है, यहां तक कि उनकी जितनी पुस्तकें भारत में बिकती हैं, स्वयं उनके देश में नहीं बिकतीं। यही प्रश्न आप यदि किसी भारतीय ब्राउन साहब से करें तो उसका उत्तर होगा बहुत सार्थक, क्योंकि वह कहेगा कि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार युग में रहते। अंग्रेजों ने ही तो सर्वप्रथम हमारे अनेक खंडों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया, हमें विज्ञान का इतना ज्ञान दिया नहीं तो हमारी भाषाएं तो नितान्त अशक्त थीं। अंग्रेजों के जमाने में तो कानून व्यवस्था थी। अंग्रेजी के बिना हम आज के हालत से भी बदतर होते। ब्राउन साहब तो मैकाले की शिक्षा का उत्पाद है।


अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी माध्यम में विज्ञान की शिक्षा तो भारत में लगभग 10 वर्षों से हो रही है। भारत के नगरों में बिजली, पानी, सड़कों तथा दूरभाष की व्यवस्था भी 100 वर्ष से अधिक पुरानी है। तब क्या बात है कि जरा सी तेज हवा चली तो बिजली गुल। भारत की राजधानी तक में, गर्मियों में पानी का अकाल पड़ जाता है। जरा सा पानी बरसा कि भू­ फोन की नानी मरने लगती है। और यह हालत ऐसी क्यों है? क्या अंग्रेजी में विज्ञान तथा इंजीनियरी पढ़े तथा प्रशिक्षित लोग ही इस दीन अवस्था के लिये जिम्मेदार नहीं ।

कोई शायद कहे कि भारत में बिजली, पानी, सड़क आदि की दुर्दशा भारतीयों के भ्रष्ट आचरण के कारण है। तब इस भ्रष्ट आचरण का कारण क्या है? चरित्र की शिक्षा धर्म तथा धार्मिक आचरणों से अधिक सरलता से आती है, वैसे आज तो धर्म को न मानने वाले लोग भी सच्चरित्र बनना चाहते हैं। पिछले हजार वर्ष के विधर्मियों के शासन में हमारे धर्म, पुस्तकालयों, धर्मस्थानों तथा पंडितों पर बहुत प्रहार हुए हैं। विश्व में जहां भी विधर्मियों ने लम्बा राज्य किया है, उस देश के मूल धर्म तो समाप्त प्राय हो गये हैं या बहुत दुर्बल अवश्य हो गये हैं। एक भारत ही इसका अपवाद है। स्वतंत्रता संग्राम के समय इस देश ने महान नेता उत्पन्न किये। स्वतंत्रता पश्चात एक तो गुलामी की मानसिकता के कारण, दूसरे, अंग्रेजी भाषा के राजभाषा बनने के कारण, तीसरे, धर्म निरपेक्षता की गलत परिभाषा के कारण धार्मिक मूल्यों का, नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। क्या किसी देश में सच्चा जनतंत्र हो सकता है कि जिस देश के शासन की भाषा उसके नागरिकों की‌ भाषाओं से नितान्त भिन्न हो !


भारतीय विद्यार्थी अंग्रेज़ी तथा उसके माध्यम से मुख्यतया शीघ्र ही अच्छी नौकरी पाने के लिये पढ़ता है। ऐसी पढ़ाई मन की गहराई में नहीं जाती, परीक्षा में ऊंचा स्थान तक ही वह सीमित रहती है। चूंकि वह सीमित ज्ञान भी एक विदेशी भाषा में है उसके एक अलग खण्ड में बने रहने की सम्भावना अधिक रहती है। जीवन के अन्य कार्य मातृभाषा में होते हैं और इस खण्ड की जानकारी अन्य खण्डों के साथ कठिनाई से ही मेल करती है। मेरे अनुभव में यह तब आया जब मैंने अंग्रेजी में सीखे विज्ञान का हिन्दी में अनुवाद किया। और तब वह ज्ञान अचानक जैसे मेरे व्यक्तित्व में घुल मिल गया। और जब कविता लिखन प्रारंभ किया त कविता मेरी मातृभाषा में ही बन पाई। मुझे समझ में आया कि रचनाशीलता का स्रोत बुद्धि के भी ऊपर है जो मातृभाषा से सिंचित होता है, या उस भाषा से जिसमें‌ जीवन जिया जाता है।


हमने प्रौद्योगिकी में कुछ प्रगति अवश्य की है किन्तु अभी भी प्रौद्योगिकी में कुल मिलाकर हमारी गिनती अग्रणी देशों में नहीं होती। प्रौद्योगिकी में जब तक देश में २४ घंटे लगातार विद्युत न मिले, हम अग्रणी नहीं‌ हैं। जब तक कानून और व्यवस्था आम जन को सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे सकती हम सभ्य नहीं हैं। चीन, दक्षिण कोरिया, इज़रायल आदि देश जो 1947 में हम से प्रोद्योगिकी में पीछे थे, आगे हो गए हैं। क्यों? उपरोक्त तीनो देशों की राज्य व्यवस्थाएं यद्यपि भिन्न विचारधाराओं की हैं, भिन्न परिस्थितियों की हैं, तथापि वे तीनो अपनी ही भाषा में पूरी शिक्षा देते हैं। विश्व की विज्ञान शिक्षित यदि 30 प्रतिशत नहीं तो महत्त्वपूर्ण आबादी तो भारत में है। किन्तु नोबेल पुरस्कार तो हमें विज्ञान में कुल एक (तीन, यदि भारतीय मूल को भी गिनें) ही मिला है। यदि शोध प्रपत्रों का अनुपात देखा जाए तो हमारा योगदान नगण्य है। जब कि विश्व के छोटे छोटे देश जैसे इज़रायल, जापान, फ्रांस, ब्रिटैन, हॉलैण्ड, डैनमार्क, इटली इत्यादि भारत से कई गुना अधिक शोध प्रपत्र लिखते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा सार्थक तो क्या, निरर्थक ही नहीं, वरन हानिकारक रही है। भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा देने से हम कहीं अधिक कल्पनाशील, सृजनशील तथा कर्मठ होते। हमें 'खुले बाजार' के गुलाम न होकर ‘वसुघैव कुटुम्बकम’ के स्वतंत्र तथा सम्मानित सदस्य होते।


भारत में जो शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जा रही है वह भारत के शरीर पर कोढ़ के समान है। और यदि वह शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से आठवीं कक्षा के स्तर के पहले से ही प्रारंभ कर दी जाए तब वह कोढ़ में खाज के समान है। क्योंकि तब तक उसकी मातृभाषा की समुचित निर्मिति उसके मस्तिष्क में नहीं बैठ पाती। ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखना चाहिये, अवश्य सीखना चाहिये। अंग्रेजी के विषय में, मैं इसे सौभाग्य मानूंगा जब हम अंग्रेजी को एक समुन्नत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह सीखें।


विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी आज के जीवन के पोर पोर में विराजमान हैं। ऐसी स्थिति में जिस भी भाषा में विज्ञान का साहित्य नहीं होगा, वह भाषा कमजोर होती जाएगी और समाप्त हो जाएगी। क्या भारतीय भाषाएं कमजोर नहीं हो रही हैं! आज वे बिरले भारतीय हैं जिनकी भाषा में ३0 - 0 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के नहीं हैं! यदि आप चाहते हैं कि भारतीय भाषाएं स्वस्थ्य बने, भारतीय संस्कृति जीवित रहे, हमारी विचार शक्ति स्वतंत्र रहे तब आपको प्रतिज्ञा करना पड़ेगी कि, ‘मैं अपनी देश की भाषा को स्वस्थ्य बनाऊंगा, भारतीय संस्कृति को व्यवहार में लाउंगा।’ यदि आप सचमुच विकास तथा समृद्धि के साथ इस विश्व में स्वतंत्र रहते हुए अपना सम्मान बढ़ाना चाहते हैं तब विज्ञान को ( उपयुक्त) मातृभाषा में सीखना होगा क्योंकि भारत में अंग्रेजी माध्यम के कारण विद्यार्थियों को विज्ञान समझने में अधिक समय और परिश्रम लगाने के बाद भी वे विषय की सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच पाते, और न उनका ज्ञान भी आत्मसात हो पाता है।


गुलामियत के व्यवहार पर एक प्रसिद्ध अवधारणा है जिसे ‘स्टॉक होम सिन्ड्रोम’ कहते हैं। उसके अनुसार गुलामियत की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। इस स्टॉकहोम सिन्ड्रोम के शिकार असंख्य अंग्रेजी भक्त हमें भारत में मिलते हैं। अन्यथा एक विदेशी भाषा आज तक हम पर कैसे राज्य कर सकती ! आज कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जिसकी भाषा विदेशी‌ हो। वे विदेशी‌ भाषा अवश्य सीखते हैं किन्तु अपनी सारी शिक्षा और सारा जीवन अपनी‌ भाषा में‌ जीते हैं।


अब हम भविष्य की बात करें। भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, अग्रणी रहेगा, शेष देश तो उसके लिये बाजार होंगे, खुले बाजार! विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त होने के लिये उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं। यह दोनों कार्य वही कर सकता है जिसका विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार है, तथा जो कल्पनाशील तथा सृजनशील है। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ आते हैं, और जिस भाषा में जीवन जिया जाता है उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैं। अतएव नौकरी के लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वाले से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, इसके अपवाद हो सकते हैं।


अंग्रेजी की शिक्षा ने अर्थात भोगवाद ने भारत में, इतने अधिक भेदों को बढ़ावा देने के बाद, एक और भयंकर भेद स्थापित कर दिया है ­ ‘अंग्रेजी’ तथा ‘गैर ­ अंग्रेजी’ का भेद। इस देश में जनतंत्र का अर्थ मात्र 5 प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों का राज्य है क्योंकि वही सत्ता में है, बलशाली है। यह कैसा जनतंत्र है ? यह कैसी स्वतंत्रता है कि हमें अपने ही देश में अपनी भाषाओं की रक्षा हमारे ही शासन द्वारा आयोजित एक विदेशी भाषा के लुभावने आक्रमण से करना पड़ रही है कि हमारे मन्दिरों पर यह तथाकथित धर्म निरपेक्ष शासन कब्जा करता है।


यदि आप चाहते हैं कि इस देश का, आपका, और उससे अधिक आपके बच्चों का पहले इस देश में, तथा बाद में विश्व में सम्मान बढ़े तब आपको, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देना ही है। आप यह न सोचें कि बच्चे को नौकरी अंग्रेजी के बिना कैसे मिलेगी। यह बहुत हानिकारक सोच है। अब ऐसा बातावरण हो गया है क़ि कम से कम हिन्दी में तो, आइएएस, एनडीए आदि की परीक्षाएं दी जा सकती हैं। भारतीयों को एक गुलामी की भाषा सीखने से अधिक मह्त्व राष्ट्र भाषा सीखने को देना चाहिये, क्योंकि अन्य महत्वपूर्ण कारणों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं की संस्कृति एक ही है, उनकी शब्दावली में बहुत समानताएं हैं, और जो मानव बनाकर सुख देने वाली है, अंग्रेज़ी की तरह भोगवादी बनाकर दुख देने वाली नहीं। अंतर्राष्ट्रीय बनने से पहले राष्ट्रीय बनना नितांत आवश्यक है जिसके लिये भारतीय भाषाओं का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है, तत्पश्चात अंग्रेज़ी सीखें। वैसे भी आपके बच्चे की कल्पनाशीलता तथा सृजन शक्ति से वह न केवल अच्छी अंग्रेजी सीख लेगा वरन जीवन में अवश्य कुछ ऐसा भी करेगा जिससे आपको गर्व महसूस होगा। और आप तथा समाज सुखी होगा! मातृभाषा तथा भारतीय संस्कृति ही आपको अच्छा मानव बनाती है। और मानव तभी अच्छा बन सकता है जब वह स्वतंत्र है, उसकी संस्कृति स्वतंत्र है उसका भाषा तथा साहित्य स्वतंत्र है।