भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
कलयुग का झूठ सफ़ेद, सत्य काला क्यों हो गया है ?-गोरे अंग्रेज़ गए काले अंग्रेज़ रह गए। जो उनके राज में न हो सका पूरा, मैकाले के उस अधूरे को 60 वर्ष में पूरा करते रहे उसके साले। विश्व की सर्वश्रेष्ठ उस संस्कृति को नष्ट किया जाता रहा, देश को लूटा जाता रहा है। दिन के प्रकाश में सबके सामने आता सफेद झूठ; और अंधकार में लुप्त सच। -तिलक 07838468776, 9911111611, 9999777358
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सत्यदर्पण:-
सत्यदर्पण:- कलयुग का झूठ सफ़ेद, सत्य काला क्यों हो गया है ?-गोरे अंग्रेज़ गए काले अंग्रेज़ रह गए। जो उनके राज में न हो सका पूरा, मैकाले के उस अधूरे को 60 वर्ष में पूरा करेंगे उसके साले। विश्व की सर्वश्रेष्ठ उस संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है, देश को लूटा जा रहा है। दिन के प्रकाश में सबके सामने आता सफेद झूठ; और अंधकार में लुप्त सच।
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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
श्री राम नवमी की कोटि कोटि हिदू समाज सहित आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.....
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
रविवार, 3 अप्रैल 2011
नव संवत 2068 की शुभकामनाएं।
मंगलवार, 8 मार्च 2011
आईसीएसई ने शहिद भगत सिंह को 'आतंकवादी', बताया, अदालत ने आपत्ति जताई
आईसीएसई ने शहिद भगत सिंह को 'आतंकवादी', बताया, अदालत ने आपत्ति जताई
दिल्ली की एक अदालत ने माध्यमिक शिक्षा (आईसीएसई) के भारतीय सर्टिफिकेट संस्थान को निर्देश दिया है कि अगले शैक्षिक सत्र से इतिहास व समाज शास्त्र की पुस्तकों में स्वतंत्रता सैनानियों के लिए अपमानसूचक संदर्भों को हटा दें. आतंकवाद के पुनरुद्धार - - गोयल ब्रदर्स प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और डी.एन. कुंद्रा द्वारा लिखित पुस्तक में एक अध्याय है जिसमें बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल को "आतंकवादियों और चरमपंथियों" के रूप में दर्शाया गया है, जब कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को "आतंकवादियों" के रूप में . कोर्ट चाहता है इन नेताओं को राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों बुलाया जाना चाहिए. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश इंदरजीत सिंह ने भी गलत जानकारी के साथ पुस्तक प्रकाशित करने से आईसीएसई को रोका. जबकि महाराष्ट्र में 118 आईसीएसई स्कूल हैं, मुंबई और दिल्ली में 60 , तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में 30 है. महाराष्ट्र से 1 लाख से अधिक छात्र आईसीएसई बोर्ड को चुनते हैं. अदालत का आदेश, दीनानाथ बत्रा, शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के राष्ट्रीय संयोजक और अन्य की एक याचिका में, कक्षा 10 इतिहास और नागरिक शास्त्र भाग-II में दी गई अपमानसूचक जानकारी हटाने की मांग पर आया था. याचिकाकर्ताओं ने आईसीएसई को तत्काल प्रभाव से पुस्तकों से भ्रामक जानकारी के रूप में युवाओं के मन को विषाक्त करती शिक्षण को रोकने के लिए अदालत का प्रत्यक्ष अनुरोध किया था. जिन्होंने हमारे देश और लोगों के लिए अपने प्राणों कि आहुति देदी जब उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए अपमानसूचक, अपमानजनक, अपमान और आपत्तिजनक उल्लेख किया जाता, उसकी भाषा से "हम गहराई से व्यथित हैं. , उनकी याचिका पढ़ता है यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भी, पाठ्यक्रम सामग्री से हमारे ऐतिहासिक अतीत के बारे में इस तरह के आपत्तिजनक और अपमान के अंश को हटाया नहीं गया है ".
हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलकभारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
मंगलवार, 1 मार्च 2011
HC notice to Rahul Gandhi on missing girl- rediff.com
HC notice to Rahul Gandhi on missing girl- rediff.com
The girl and her family are alleged to be "untraceable" ever since they called on Rahul during one of his visit to his parliamentary constituency, Amethi on December 13, 2006.
Moving a petition on behalf of the family, Kishore Samrite, former Samajwadi Party MLA from Madhya Pradesh [ Images], has accused the Congress celebrity and his five foreigner friends of indulging in criminal assault on the 24-year-old Sukanya Singh.
Claiming to have learnt this from some news website, the petitioner has stated, "I was moved by the news. So I came all the way from my home in Balaghat, Madhya Pradesh to Amethi where I found the girl's house locked. Local villagers were tight-lipped about the whereabouts of the family."
He has, therefore, sought the intervention of the Allahabad high court "to issue a writ of Habeas Corpus to Rahul Gandhi to produce the missing girl Sukanya, her father Balram Singh and mother Savitri Singh."
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
जो मीडिया को पूछना तो चाहिए लेकिन वो पूछेगी नहीं
जो मीडिया को पूछना तो चाहिए लेकिन वो पूछेगी नहीं
एक सार्थक पहल मीडिया के क्षेत्र में राष्ट्रीय साप्ताहिक युग दर्पण संपादक तिलक 09911111611
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलकगुरुवार, 10 फ़रवरी 2011
'एकात्म मानववाद' के मंत्रद्रष्टा',
आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक
सोमवार, 17 जनवरी 2011
.जब तक 'अंग्रेजी' राज रहेगा, स्वतंत्र भारत सपना रहेगा . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाइस मार्शल)
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1947 तक हमारा हृदय परतंत्र नहीं था, बाहर से हम परतंत्र अवश्य थे। 1947 के बाद हम बाहर से अवश्य स्वतंत्र हो गए हैं, पर हृदय अंग्रेजी का, भोगवादी सभ्यता का गुलाम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी पर भी यद्यपि अंग्रेजी लादी गई थी, किन्तु वह पीढ़ी उसे विदेशी भाषा ही मानती थी। स्वतंत्रता पश्चात की पीढ़ी ने, अपने प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश के अनुसार, अंग्रेजी को न केवल अपना माना वरन विकास के लिये भी पश्चिम के अनुकरण को अनिवार्य माना। महात्मा गाँधी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में दृढ़ता पूर्वक कहते हैं कि, ‘वही लोग अंग्रेजों के गुलाम हैं जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, अपराध आदि बढ़े हैं।’ हमारे प्रधानमंत्री नेहरू ने गाँधी के गहन गम्भीर कथनों को नहीं माना, क्योंकि वे स्वयं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में थे। और ऐसी अंग्रेजी शिक्षा भारत में पाश्चात्य जीवनमूल्य ही लाई भोगवाद तथा अहंवाद लाई, मानसिक गुलामी लाई जिसका स्पष्ट प्रभाव लगभग 1975 से बढ़ते बढ़ते २०१० में विकराल रूप धारण कर लेता है। समाचार पत्रों में प्रकाशित घटनाएं विद्यार्थियों और शिक्षकों में बढ़ते भयंकर अपराध उपरोक्त कथनों के प्रमाण हैं।
हृदय या मस्तिष्क की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आखिर हमें स्वयं को जीवन मूल्य सिखाना ही पड़ते हैं, चाहे जिस भाषा में सीख लें। और पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनके सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें? वैसे तो आसान यही है कि हम उनका अनुसरण करें। किन्तु इस निर्णय के पहले हमें सफ़लता शब्द का अर्थ गहराई से समझना होगा। आज की पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है, उनकी सफलता आप उनके भोग के संसाधनों से ही तो नाप रहे हैं सुख से तो नहीं! क्या सुख को भोग के संसाधनों से नापा जाना चाहिये? भोग तो हमें करना ही है और क्या भोग में सुख नहीं है? अब हमें भोग और भोगवाद में अन्तर समझना पड़ेगा। जीवन के लिये आवश्यक उपभोग करना उचित भोग है। भोग को सुख मानते हुए, भोगवादी सभ्यता में अपने लिये सर्वाधिक सुख चाहते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, क्योंकि भोग तो व्यक्ति स्वयं अपने लिये ही करता है, कोई अन्य उसके लिये भोग नहीं कर सकता ! परिवार का प्रत्येक सदस्य भी, और इस तरह परिवार तथा समाज विखंडित हो जाता है क्योंकि अब सभी सदस्य अपने लिये ही सर्वाधिक भोग चाहते हैं। जब टूटते हैं परिवार, तो दुख ही बढ़ता है लगातार। जब जनता में और शासकों में अलगाव हो, मंत्रियों तथा उनके सलाहकार अधिकारियों में; पति और पत्नियों में; पुरुष और महिलाओं में; प्रौढ़, यौवा तथा किशोरों में; शिक्षकों और विद्यार्थियों आदि आदि में अलगाव हो, भोग के लिये प्रतिस्पर्धा हो, या व्यावसायिक लेन-देन हो तब शान्ति और सुख तो नहीं हो सकता। जब मात्र लाभ ही व्यवसाय या उद्योग का प्रमुख उद्देश्य हो तब शक्तिशाली अन्य का शोषण ही तो करेगा, इसमें न तो जैन्डर आता है और न वर्ग( क्लास) । पुरुष पुरुष का, महिला महिला का, दलित दलित का अर्थात अधिक शक्तिशाली कम शक्तिशाली का अपने सुखभोग के लिये शोषण करेगा। आज बड़ी बड़ी कम्पनियां अपने सभी कर्मचारियों का शोषण कर रही हैं यद्यपि लगता है कि वे उऩ्हें अधिक वेतन तो दे रही हैं। इसलिये क्या आश्चर्य कि सुख की चाह में भोग तो बढ़ रहा है किन्तु सुख नहीं।
भारतीय संस्कृति को दीर्घकालीन चिन्तन, मनन तथा अनुभवों से सुख का अर्थ ज्ञात है। तभी वे ऋषि त्यागपूर्वक भोग का ( ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः ईशावास्य उपनिषद) मंत्र देते हैं। महाविद्वान तथा बलवान रावण अनियंत्रित भोगेच्छा के कारण ही तो राक्षस था। ‘रावयति इति रावणः’ अर्थात जो रूलाता है वह रावण है, भोगवाद भी अन्ततः रुलाता है, प्रारम्भ में चाहे लगे कि सुख दे रहा है। यदि आप भोगवादी राक्षस नहीं बनना चाहते तो अंग्रेजी की गुलामी छोड़ें, सुखपूर्वक स्वतंत्र रहना चाहते हैं तो भारतीय भाषाओं में सारी शिक्षा ही न ग्रहण करें, वरन इन में अपना जीवन जियें। यह न भूलें कि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वाहन भाषा तथा साहित्य है। संस्कृति की स्वतंत्रता ही सच्ची स्वतंत्रता है। पहले मैं तुलसीदास की इस चौपाई को ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।’ सत्य मानता था। किन्तु मैं आज देख रहा हूं कि अंग्रेजी भक्त इंडियन, सपने ही में सुखी है। आप तुरंत कहेंगे कि बिना अंग्रेज़ी के तो हम पिछड़े रहेंगे, गरीब रहेंगे । इस पर विचार करें।
यदि आप किसी अंग्रेज से या अमेरिकी से प्रश्न करें कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा कितनी सार्थक है तब उसका उत्तर होगा बहुत ही सार्थक क्योंकि भारत उनके लिये अति उत्तम बाजार बन गया है, यहां तक कि उनकी जितनी पुस्तकें भारत में बिकती हैं, स्वयं उनके देश में नहीं बिकतीं। यही प्रश्न आप यदि किसी भारतीय ब्राउन साहब से करें तो उसका उत्तर होगा बहुत सार्थक, क्योंकि वह कहेगा कि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार युग में रहते। अंग्रेजों ने ही तो सर्वप्रथम हमारे अनेक खंडों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया, हमें विज्ञान का इतना ज्ञान दिया नहीं तो हमारी भाषाएं तो नितान्त अशक्त थीं। अंग्रेजों के जमाने में तो कानून व्यवस्था थी। अंग्रेजी के बिना हम आज के हालत से भी बदतर होते। ब्राउन साहब तो मैकाले की शिक्षा का उत्पाद है।
अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी माध्यम में विज्ञान की शिक्षा तो भारत में लगभग 1५0 वर्षों से हो रही है। भारत के नगरों में बिजली, पानी, सड़कों तथा दूरभाष की व्यवस्था भी 100 वर्ष से अधिक पुरानी है। तब क्या बात है कि जरा सी तेज हवा चली तो बिजली गुल। भारत की राजधानी तक में, गर्मियों में पानी का अकाल पड़ जाता है। जरा सा पानी बरसा कि भू फोन की नानी मरने लगती है। और यह हालत ऐसी क्यों है? क्या अंग्रेजी में विज्ञान तथा इंजीनियरी पढ़े तथा प्रशिक्षित लोग ही इस दीन अवस्था के लिये जिम्मेदार नहीं ।
कोई शायद कहे कि भारत में बिजली, पानी, सड़क आदि की दुर्दशा भारतीयों के भ्रष्ट आचरण के कारण है। तब इस भ्रष्ट आचरण का कारण क्या है? चरित्र की शिक्षा धर्म तथा धार्मिक आचरणों से अधिक सरलता से आती है, वैसे आज तो धर्म को न मानने वाले लोग भी सच्चरित्र बनना चाहते हैं। पिछले हजार वर्ष के विधर्मियों के शासन में हमारे धर्म, पुस्तकालयों, धर्मस्थानों तथा पंडितों पर बहुत प्रहार हुए हैं। विश्व में जहां भी विधर्मियों ने लम्बा राज्य किया है, उस देश के मूल धर्म तो समाप्त प्राय हो गये हैं या बहुत दुर्बल अवश्य हो गये हैं। एक भारत ही इसका अपवाद है। स्वतंत्रता संग्राम के समय इस देश ने महान नेता उत्पन्न किये। स्वतंत्रता पश्चात एक तो गुलामी की मानसिकता के कारण, दूसरे, अंग्रेजी भाषा के राजभाषा बनने के कारण, तीसरे, धर्म निरपेक्षता की गलत परिभाषा के कारण धार्मिक मूल्यों का, नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। क्या किसी देश में सच्चा जनतंत्र हो सकता है कि जिस देश के शासन की भाषा उसके नागरिकों की भाषाओं से नितान्त भिन्न हो !
भारतीय विद्यार्थी अंग्रेज़ी तथा उसके माध्यम से मुख्यतया शीघ्र ही अच्छी नौकरी पाने के लिये पढ़ता है। ऐसी पढ़ाई मन की गहराई में नहीं जाती, परीक्षा में ऊंचा स्थान तक ही वह सीमित रहती है। चूंकि वह सीमित ज्ञान भी एक विदेशी भाषा में है उसके एक अलग खण्ड में बने रहने की सम्भावना अधिक रहती है। जीवन के अन्य कार्य मातृभाषा में होते हैं और इस खण्ड की जानकारी अन्य खण्डों के साथ कठिनाई से ही मेल करती है। मेरे अनुभव में यह तब आया जब मैंने अंग्रेजी में सीखे विज्ञान का हिन्दी में अनुवाद किया। और तब वह ज्ञान अचानक जैसे मेरे व्यक्तित्व में घुल मिल गया। और जब कविता लिखन प्रारंभ किया तब कविता मेरी मातृभाषा में ही बन पाई। मुझे समझ में आया कि रचनाशीलता का स्रोत बुद्धि के भी ऊपर है जो मातृभाषा से सिंचित होता है, या उस भाषा से जिसमें जीवन जिया जाता है।
हमने प्रौद्योगिकी में कुछ प्रगति अवश्य की है किन्तु अभी भी प्रौद्योगिकी में कुल मिलाकर हमारी गिनती अग्रणी देशों में नहीं होती। प्रौद्योगिकी में जब तक देश में २४ घंटे लगातार विद्युत न मिले, हम अग्रणी नहीं हैं। जब तक कानून और व्यवस्था आम जन को सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे सकती हम सभ्य नहीं हैं। चीन, दक्षिण कोरिया, इज़रायल आदि देश जो 1947 में हम से प्रोद्योगिकी में पीछे थे, आगे हो गए हैं। क्यों? उपरोक्त तीनो देशों की राज्य व्यवस्थाएं यद्यपि भिन्न विचारधाराओं की हैं, भिन्न परिस्थितियों की हैं, तथापि वे तीनो अपनी ही भाषा में पूरी शिक्षा देते हैं। विश्व की विज्ञान शिक्षित यदि 30 प्रतिशत नहीं तो महत्त्वपूर्ण आबादी तो भारत में है। किन्तु नोबेल पुरस्कार तो हमें विज्ञान में कुल एक (तीन, यदि भारतीय मूल को भी गिनें) ही मिला है। यदि शोध प्रपत्रों का अनुपात देखा जाए तो हमारा योगदान नगण्य है। जब कि विश्व के छोटे छोटे देश जैसे इज़रायल, जापान, फ्रांस, ब्रिटैन, हॉलैण्ड, डैनमार्क, इटली इत्यादि भारत से कई गुना अधिक शोध प्रपत्र लिखते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा सार्थक तो क्या, निरर्थक ही नहीं, वरन हानिकारक रही है। भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा देने से हम कहीं अधिक कल्पनाशील, सृजनशील तथा कर्मठ होते। हमें 'खुले बाजार' के गुलाम न होकर ‘वसुघैव कुटुम्बकम’ के स्वतंत्र तथा सम्मानित सदस्य होते।
भारत में जो शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जा रही है वह भारत के शरीर पर कोढ़ के समान है। और यदि वह शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से आठवीं कक्षा के स्तर के पहले से ही प्रारंभ कर दी जाए तब वह कोढ़ में खाज के समान है। क्योंकि तब तक उसकी मातृभाषा की समुचित निर्मिति उसके मस्तिष्क में नहीं बैठ पाती। ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखना चाहिये, अवश्य सीखना चाहिये। अंग्रेजी के विषय में, मैं इसे सौभाग्य मानूंगा जब हम अंग्रेजी को एक समुन्नत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह सीखें।
विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी आज के जीवन के पोर पोर में विराजमान हैं। ऐसी स्थिति में जिस भी भाषा में विज्ञान का साहित्य नहीं होगा, वह भाषा कमजोर होती जाएगी और समाप्त हो जाएगी। क्या भारतीय भाषाएं कमजोर नहीं हो रही हैं! आज वे बिरले भारतीय हैं जिनकी भाषा में ३0 - ४0 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के नहीं हैं! यदि आप चाहते हैं कि भारतीय भाषाएं स्वस्थ्य बने, भारतीय संस्कृति जीवित रहे, हमारी विचार शक्ति स्वतंत्र रहे तब आपको प्रतिज्ञा करना पड़ेगी कि, ‘मैं अपनी देश की भाषा को स्वस्थ्य बनाऊंगा, भारतीय संस्कृति को व्यवहार में लाउंगा।’ यदि आप सचमुच विकास तथा समृद्धि के साथ इस विश्व में स्वतंत्र रहते हुए अपना सम्मान बढ़ाना चाहते हैं तब विज्ञान को ( उपयुक्त) मातृभाषा में सीखना होगा क्योंकि भारत में अंग्रेजी माध्यम के कारण विद्यार्थियों को विज्ञान समझने में अधिक समय और परिश्रम लगाने के बाद भी वे विषय की सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच पाते, और न उनका ज्ञान भी आत्मसात हो पाता है।
गुलामियत के व्यवहार पर एक प्रसिद्ध अवधारणा है जिसे ‘स्टॉक होम सिन्ड्रोम’ कहते हैं। उसके अनुसार गुलामियत की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। इस स्टॉकहोम सिन्ड्रोम के शिकार असंख्य अंग्रेजी भक्त हमें भारत में मिलते हैं। अन्यथा एक विदेशी भाषा आज तक हम पर कैसे राज्य कर सकती ! आज कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जिसकी भाषा विदेशी हो। वे विदेशी भाषा अवश्य सीखते हैं किन्तु अपनी सारी शिक्षा और सारा जीवन अपनी भाषा में जीते हैं।
अब हम भविष्य की बात करें। भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, अग्रणी रहेगा, शेष देश तो उसके लिये बाजार होंगे, खुले बाजार! विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त होने के लिये उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं। यह दोनों कार्य वही कर सकता है जिसका विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार है, तथा जो कल्पनाशील तथा सृजनशील है। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ आते हैं, और जिस भाषा में जीवन जिया जाता है उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैं। अतएव नौकरी के लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वाले से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, इसके अपवाद हो सकते हैं।
अंग्रेजी की शिक्षा ने अर्थात भोगवाद ने भारत में, इतने अधिक भेदों को बढ़ावा देने के बाद, एक और भयंकर भेद स्थापित कर दिया है ‘अंग्रेजी’ तथा ‘गैर अंग्रेजी’ का भेद। इस देश में जनतंत्र का अर्थ मात्र 5 प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों का राज्य है क्योंकि वही सत्ता में है, बलशाली है। यह कैसा जनतंत्र है ? यह कैसी स्वतंत्रता है कि हमें अपने ही देश में अपनी भाषाओं की रक्षा हमारे ही शासन द्वारा आयोजित एक विदेशी भाषा के लुभावने आक्रमण से करना पड़ रही है कि हमारे मन्दिरों पर यह तथाकथित धर्म निरपेक्ष शासन कब्जा करता है।
यदि आप चाहते हैं कि इस देश का, आपका, और उससे अधिक आपके बच्चों का पहले इस देश में, तथा बाद में विश्व में सम्मान बढ़े तब आपको, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देना ही है। आप यह न सोचें कि बच्चे को नौकरी अंग्रेजी के बिना कैसे मिलेगी। यह बहुत हानिकारक सोच है। अब ऐसा बातावरण हो गया है क़ि कम से कम हिन्दी में तो, आइएएस, एनडीए आदि की परीक्षाएं दी जा सकती हैं। भारतीयों को एक गुलामी की भाषा सीखने से अधिक मह्त्व राष्ट्र भाषा सीखने को देना चाहिये, क्योंकि अन्य महत्वपूर्ण कारणों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं की संस्कृति एक ही है, उनकी शब्दावली में बहुत समानताएं हैं, और जो मानव बनाकर सुख देने वाली है, अंग्रेज़ी की तरह भोगवादी बनाकर दुख देने वाली नहीं। अंतर्राष्ट्रीय बनने से पहले राष्ट्रीय बनना नितांत आवश्यक है जिसके लिये भारतीय भाषाओं का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है, तत्पश्चात अंग्रेज़ी सीखें। वैसे भी आपके बच्चे की कल्पनाशीलता तथा सृजन शक्ति से वह न केवल अच्छी अंग्रेजी सीख लेगा वरन जीवन में अवश्य कुछ ऐसा भी करेगा जिससे आपको गर्व महसूस होगा। और आप तथा समाज सुखी होगा! मातृभाषा तथा भारतीय संस्कृति ही आपको अच्छा मानव बनाती है। और मानव तभी अच्छा बन सकता है जब वह स्वतंत्र है, उसकी संस्कृति स्वतंत्र है उसका भाषा तथा साहित्य स्वतंत्र है।