सत्यदर्पण:-

सत्यदर्पण:- कलयुग का झूठ सफ़ेद, सत्य काला क्यों हो गया है ?-गोरे अंग्रेज़ गए काले अंग्रेज़ रह गए। जो उनके राज में न हो सका पूरा, मैकाले के उस अधूरे को 60 वर्ष में पूरा करेंगे उसके साले। विश्व की सर्वश्रेष्ठ उस संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है, देश को लूटा जा रहा है। दिन के प्रकाश में सबके सामने आता सफेद झूठ; और अंधकार में लुप्त सच।

भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो | मानवतावादी वेश में आया रावण | संस्कृति में ही हमारे प्राण है | भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व | -तिलक 7531949051, 09911111611, 9999777358.

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सोमवार, 17 जनवरी 2011

.जब तक 'अंग्रेजी' राज रहेगा, स्वतंत्र भारत सपना रहेगा ­. . . . . . . . . . . . . . . . . .. . विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाइस मार्शल)

भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
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1947 तक हमारा हृदय परतंत्र नहीं था, बाहर से हम परतंत्र अवश्य थे। 1947 के बाद हम बाहर से अवश्य स्वतंत्र हो गए हैं, पर हृदय अंग्रेजी का, भोगवादी सभ्यता का गुलाम हो गया है। स्वतंत्रता पूर्व की पीढ़ी पर भी यद्यपि अंग्रेजी लादी गई थी, किन्तु वह पीढ़ी उसे विदेशी भाषा ही मानती थी। स्वतंत्रता पश्चात की पीढ़ी ने, अपने प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश के अनुसार, अंग्रेजी को न केवल अपना माना वरन विकास के लिये भी पश्चिम के अनुकरण को अनिवार्य माना। महात्मा गाँधी अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में दृढ़ता पूर्वक कहते हैं कि, ‘वही लोग अंग्रेजों के गुलाम हैं जो पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने हमारे राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, अपराध आदि बढ़े हैं।’ हमारे प्रधानमंत्री नेहरू ने गाँधी के गहन गम्भीर कथनों को नहीं माना, क्योंकि वे स्वयं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में थे। और ऐसी अंग्रेजी शिक्षा भारत में पाश्चात्य जीवन­मूल्य ही लाई ­ भोगवाद तथा अहंवाद लाई, मानसिक गुलामी लाई जिसका स्पष्ट प्रभाव लगभग 1975 से बढ़ते बढ़ते २०१० में विकराल रूप धारण कर लेता है। समाचार पत्रों में प्रकाशित घटनाएं विद्यार्थियों और शिक्षकों में बढ़ते भयंकर अपराध उपरोक्त कथनों के प्रमाण हैं।


हृदय या मस्तिष्क की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आखिर हमें स्वयं को जीवन मूल्य सिखाना ही पड़ते हैं, चाहे जिस भाषा में सीख लें। और पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनके सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें? वैसे तो आसान यही है कि हम उनका अनुसरण करें। किन्तु इस निर्णय के पहले हमें सफ़लता शब्द का अर्थ गहराई से समझना होगा। आज की पाश्चात्य सभ्यता भोगवादी सभ्यता है, उनकी सफलता आप उनके भोग के संसाधनों से ही तो नाप रहे हैं सुख से तो नहीं! क्या सुख को भोग के संसाधनों से नापा जाना चाहिये? भोग तो हमें करना ही है और क्या भोग में सुख नहीं है? अब हमें भोग और भोगवाद में अन्तर समझना पड़ेगा। जीवन के लिये आवश्यक उपभोग करना उचित भोग है। भोग को सुख मानते हुए, भोगवादी सभ्यता में अपने लिये सर्वाधिक सुख चाहते हुए प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये सर्वाधिक भोग चाहता है, क्योंकि भोग तो व्यक्ति स्वयं अपने लिये ही करता है, कोई अन्य उसके लिये भोग नहीं कर सकता ! परिवार का प्रत्येक सदस्य भी, और इस तरह परिवार तथा समाज विखंडित हो जाता है क्योंकि अब सभी सदस्य अपने लिये ही सर्वाधिक भोग चाहते हैं। जब टूटते हैं परिवार, तो दुख ही बढ़ता है लगातार। जब जनता में और शासकों में अलगाव हो, मंत्रियों तथा उनके सलाहकार अधिकारियों में; पति और पत्नियों में; पुरुष और महिलाओं में; प्रौढ़, यौवा तथा किशोरों में; शिक्षकों और विद्यार्थियों आदि आदि में अलगाव हो, भोग के लिये प्रतिस्पर्धा हो, या व्यावसायिक लेन-देन हो तब शान्ति और सुख तो नहीं हो सकता। जब मात्र लाभ ही व्यवसाय या उद्योग का प्रमुख उद्देश्य हो तब शक्तिशाली अन्य का शोषण ही तो करेगा, इसमें न तो जैन्डर आता है और न वर्ग( क्लास) । पुरुष पुरुष का, महिला महिला का, दलित दलित का अर्थात अधिक शक्तिशाली कम शक्तिशाली का अपने सुखभोग के लिये शोषण करेगा। आज बड़ी बड़ी कम्पनियां अपने सभी कर्मचारियों का शोषण कर रही‌ हैं यद्यपि लगता है कि वे उऩ्हें अधिक वेतन तो दे रही‌ हैं। इसलिये क्या आश्चर्य कि सुख की चाह में भोग तो बढ़ रहा है किन्तु सुख नहीं।


भारतीय संस्कृति को दीर्घकालीन चिन्तन, मनन तथा अनुभवों से सुख का अर्थ ज्ञात है। तभी वे ऋषि त्याग­पूर्वक भोग का ( ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः ­ ईशावास्य उपनिषद) मंत्र देते हैं। महाविद्वान तथा बलवान रावण अनियंत्रित भोगेच्छा के कारण ही तो राक्षस था। ‘रावयति इति रावणः’ अर्थात जो रूलाता है वह रावण है, भोगवाद भी अन्ततः रुलाता है, प्रारम्भ में चाहे लगे कि सुख दे रहा है। यदि आप भोगवादी राक्षस नहीं बनना चाहते तो अंग्रेजी की गुलामी छोड़ें, सुखपूर्वक स्वतंत्र रहना चाहते हैं तो भारतीय भाषाओं में सारी शिक्षा ही न ग्रहण करें, वरन इन में अपना जीवन जियें। यह न भूलें कि नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, और संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वाहन भाषा तथा साहित्य है। संस्कृति की स्वतंत्रता ही सच्ची स्वतंत्रता है। पहले मैं तुलसीदास की इस चौपाई को ­ ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।’ सत्य मानता था। किन्तु मैं आज देख रहा हूं कि अंग्रेजी भक्त इंडियन, सपने ही में सुखी है। आप तुरंत कहेंगे कि बिना अंग्रेज़ी के तो हम पिछड़े रहेंगे, गरीब रहेंगे । इस पर विचार करें।


यदि आप किसी अंग्रेज से या अमेरिकी से प्रश्न करें कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा कितनी सार्थक है तब उसका उत्तर होगा बहुत ही सार्थक क्योंकि भारत उनके लिये अति उत्तम बाजार बन गया है, यहां तक कि उनकी जितनी पुस्तकें भारत में बिकती हैं, स्वयं उनके देश में नहीं बिकतीं। यही प्रश्न आप यदि किसी भारतीय ब्राउन साहब से करें तो उसका उत्तर होगा बहुत सार्थक, क्योंकि वह कहेगा कि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार युग में रहते। अंग्रेजों ने ही तो सर्वप्रथम हमारे अनेक खंडों को जोड़कर एक राष्ट्र बनाया, हमें विज्ञान का इतना ज्ञान दिया नहीं तो हमारी भाषाएं तो नितान्त अशक्त थीं। अंग्रेजों के जमाने में तो कानून व्यवस्था थी। अंग्रेजी के बिना हम आज के हालत से भी बदतर होते। ब्राउन साहब तो मैकाले की शिक्षा का उत्पाद है।


अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी माध्यम में विज्ञान की शिक्षा तो भारत में लगभग 10 वर्षों से हो रही है। भारत के नगरों में बिजली, पानी, सड़कों तथा दूरभाष की व्यवस्था भी 100 वर्ष से अधिक पुरानी है। तब क्या बात है कि जरा सी तेज हवा चली तो बिजली गुल। भारत की राजधानी तक में, गर्मियों में पानी का अकाल पड़ जाता है। जरा सा पानी बरसा कि भू­ फोन की नानी मरने लगती है। और यह हालत ऐसी क्यों है? क्या अंग्रेजी में विज्ञान तथा इंजीनियरी पढ़े तथा प्रशिक्षित लोग ही इस दीन अवस्था के लिये जिम्मेदार नहीं ।

कोई शायद कहे कि भारत में बिजली, पानी, सड़क आदि की दुर्दशा भारतीयों के भ्रष्ट आचरण के कारण है। तब इस भ्रष्ट आचरण का कारण क्या है? चरित्र की शिक्षा धर्म तथा धार्मिक आचरणों से अधिक सरलता से आती है, वैसे आज तो धर्म को न मानने वाले लोग भी सच्चरित्र बनना चाहते हैं। पिछले हजार वर्ष के विधर्मियों के शासन में हमारे धर्म, पुस्तकालयों, धर्मस्थानों तथा पंडितों पर बहुत प्रहार हुए हैं। विश्व में जहां भी विधर्मियों ने लम्बा राज्य किया है, उस देश के मूल धर्म तो समाप्त प्राय हो गये हैं या बहुत दुर्बल अवश्य हो गये हैं। एक भारत ही इसका अपवाद है। स्वतंत्रता संग्राम के समय इस देश ने महान नेता उत्पन्न किये। स्वतंत्रता पश्चात एक तो गुलामी की मानसिकता के कारण, दूसरे, अंग्रेजी भाषा के राजभाषा बनने के कारण, तीसरे, धर्म निरपेक्षता की गलत परिभाषा के कारण धार्मिक मूल्यों का, नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। क्या किसी देश में सच्चा जनतंत्र हो सकता है कि जिस देश के शासन की भाषा उसके नागरिकों की‌ भाषाओं से नितान्त भिन्न हो !


भारतीय विद्यार्थी अंग्रेज़ी तथा उसके माध्यम से मुख्यतया शीघ्र ही अच्छी नौकरी पाने के लिये पढ़ता है। ऐसी पढ़ाई मन की गहराई में नहीं जाती, परीक्षा में ऊंचा स्थान तक ही वह सीमित रहती है। चूंकि वह सीमित ज्ञान भी एक विदेशी भाषा में है उसके एक अलग खण्ड में बने रहने की सम्भावना अधिक रहती है। जीवन के अन्य कार्य मातृभाषा में होते हैं और इस खण्ड की जानकारी अन्य खण्डों के साथ कठिनाई से ही मेल करती है। मेरे अनुभव में यह तब आया जब मैंने अंग्रेजी में सीखे विज्ञान का हिन्दी में अनुवाद किया। और तब वह ज्ञान अचानक जैसे मेरे व्यक्तित्व में घुल मिल गया। और जब कविता लिखन प्रारंभ किया त कविता मेरी मातृभाषा में ही बन पाई। मुझे समझ में आया कि रचनाशीलता का स्रोत बुद्धि के भी ऊपर है जो मातृभाषा से सिंचित होता है, या उस भाषा से जिसमें‌ जीवन जिया जाता है।


हमने प्रौद्योगिकी में कुछ प्रगति अवश्य की है किन्तु अभी भी प्रौद्योगिकी में कुल मिलाकर हमारी गिनती अग्रणी देशों में नहीं होती। प्रौद्योगिकी में जब तक देश में २४ घंटे लगातार विद्युत न मिले, हम अग्रणी नहीं‌ हैं। जब तक कानून और व्यवस्था आम जन को सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे सकती हम सभ्य नहीं हैं। चीन, दक्षिण कोरिया, इज़रायल आदि देश जो 1947 में हम से प्रोद्योगिकी में पीछे थे, आगे हो गए हैं। क्यों? उपरोक्त तीनो देशों की राज्य व्यवस्थाएं यद्यपि भिन्न विचारधाराओं की हैं, भिन्न परिस्थितियों की हैं, तथापि वे तीनो अपनी ही भाषा में पूरी शिक्षा देते हैं। विश्व की विज्ञान शिक्षित यदि 30 प्रतिशत नहीं तो महत्त्वपूर्ण आबादी तो भारत में है। किन्तु नोबेल पुरस्कार तो हमें विज्ञान में कुल एक (तीन, यदि भारतीय मूल को भी गिनें) ही मिला है। यदि शोध प्रपत्रों का अनुपात देखा जाए तो हमारा योगदान नगण्य है। जब कि विश्व के छोटे छोटे देश जैसे इज़रायल, जापान, फ्रांस, ब्रिटैन, हॉलैण्ड, डैनमार्क, इटली इत्यादि भारत से कई गुना अधिक शोध प्रपत्र लिखते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि अंग्रेजी माध्यम से भारत में विज्ञान की शिक्षा सार्थक तो क्या, निरर्थक ही नहीं, वरन हानिकारक रही है। भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा देने से हम कहीं अधिक कल्पनाशील, सृजनशील तथा कर्मठ होते। हमें 'खुले बाजार' के गुलाम न होकर ‘वसुघैव कुटुम्बकम’ के स्वतंत्र तथा सम्मानित सदस्य होते।


भारत में जो शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जा रही है वह भारत के शरीर पर कोढ़ के समान है। और यदि वह शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से आठवीं कक्षा के स्तर के पहले से ही प्रारंभ कर दी जाए तब वह कोढ़ में खाज के समान है। क्योंकि तब तक उसकी मातृभाषा की समुचित निर्मिति उसके मस्तिष्क में नहीं बैठ पाती। ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखना चाहिये, अवश्य सीखना चाहिये। अंग्रेजी के विषय में, मैं इसे सौभाग्य मानूंगा जब हम अंग्रेजी को एक समुन्नत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह सीखें।


विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी आज के जीवन के पोर पोर में विराजमान हैं। ऐसी स्थिति में जिस भी भाषा में विज्ञान का साहित्य नहीं होगा, वह भाषा कमजोर होती जाएगी और समाप्त हो जाएगी। क्या भारतीय भाषाएं कमजोर नहीं हो रही हैं! आज वे बिरले भारतीय हैं जिनकी भाषा में ३0 - 0 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के नहीं हैं! यदि आप चाहते हैं कि भारतीय भाषाएं स्वस्थ्य बने, भारतीय संस्कृति जीवित रहे, हमारी विचार शक्ति स्वतंत्र रहे तब आपको प्रतिज्ञा करना पड़ेगी कि, ‘मैं अपनी देश की भाषा को स्वस्थ्य बनाऊंगा, भारतीय संस्कृति को व्यवहार में लाउंगा।’ यदि आप सचमुच विकास तथा समृद्धि के साथ इस विश्व में स्वतंत्र रहते हुए अपना सम्मान बढ़ाना चाहते हैं तब विज्ञान को ( उपयुक्त) मातृभाषा में सीखना होगा क्योंकि भारत में अंग्रेजी माध्यम के कारण विद्यार्थियों को विज्ञान समझने में अधिक समय और परिश्रम लगाने के बाद भी वे विषय की सूक्ष्मता तक नहीं पहुँच पाते, और न उनका ज्ञान भी आत्मसात हो पाता है।


गुलामियत के व्यवहार पर एक प्रसिद्ध अवधारणा है जिसे ‘स्टॉक होम सिन्ड्रोम’ कहते हैं। उसके अनुसार गुलामियत की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। इस स्टॉकहोम सिन्ड्रोम के शिकार असंख्य अंग्रेजी भक्त हमें भारत में मिलते हैं। अन्यथा एक विदेशी भाषा आज तक हम पर कैसे राज्य कर सकती ! आज कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जिसकी भाषा विदेशी‌ हो। वे विदेशी‌ भाषा अवश्य सीखते हैं किन्तु अपनी सारी शिक्षा और सारा जीवन अपनी‌ भाषा में‌ जीते हैं।


अब हम भविष्य की बात करें। भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, अग्रणी रहेगा, शेष देश तो उसके लिये बाजार होंगे, खुले बाजार! विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त होने के लिये उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं। यह दोनों कार्य वही कर सकता है जिसका विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार है, तथा जो कल्पनाशील तथा सृजनशील है। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ आते हैं, और जिस भाषा में जीवन जिया जाता है उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैं। अतएव नौकरी के लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वाले से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, इसके अपवाद हो सकते हैं।


अंग्रेजी की शिक्षा ने अर्थात भोगवाद ने भारत में, इतने अधिक भेदों को बढ़ावा देने के बाद, एक और भयंकर भेद स्थापित कर दिया है ­ ‘अंग्रेजी’ तथा ‘गैर ­ अंग्रेजी’ का भेद। इस देश में जनतंत्र का अर्थ मात्र 5 प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों का राज्य है क्योंकि वही सत्ता में है, बलशाली है। यह कैसा जनतंत्र है ? यह कैसी स्वतंत्रता है कि हमें अपने ही देश में अपनी भाषाओं की रक्षा हमारे ही शासन द्वारा आयोजित एक विदेशी भाषा के लुभावने आक्रमण से करना पड़ रही है कि हमारे मन्दिरों पर यह तथाकथित धर्म निरपेक्ष शासन कब्जा करता है।


यदि आप चाहते हैं कि इस देश का, आपका, और उससे अधिक आपके बच्चों का पहले इस देश में, तथा बाद में विश्व में सम्मान बढ़े तब आपको, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देना ही है। आप यह न सोचें कि बच्चे को नौकरी अंग्रेजी के बिना कैसे मिलेगी। यह बहुत हानिकारक सोच है। अब ऐसा बातावरण हो गया है क़ि कम से कम हिन्दी में तो, आइएएस, एनडीए आदि की परीक्षाएं दी जा सकती हैं। भारतीयों को एक गुलामी की भाषा सीखने से अधिक मह्त्व राष्ट्र भाषा सीखने को देना चाहिये, क्योंकि अन्य महत्वपूर्ण कारणों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं की संस्कृति एक ही है, उनकी शब्दावली में बहुत समानताएं हैं, और जो मानव बनाकर सुख देने वाली है, अंग्रेज़ी की तरह भोगवादी बनाकर दुख देने वाली नहीं। अंतर्राष्ट्रीय बनने से पहले राष्ट्रीय बनना नितांत आवश्यक है जिसके लिये भारतीय भाषाओं का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है, तत्पश्चात अंग्रेज़ी सीखें। वैसे भी आपके बच्चे की कल्पनाशीलता तथा सृजन शक्ति से वह न केवल अच्छी अंग्रेजी सीख लेगा वरन जीवन में अवश्य कुछ ऐसा भी करेगा जिससे आपको गर्व महसूस होगा। और आप तथा समाज सुखी होगा! मातृभाषा तथा भारतीय संस्कृति ही आपको अच्छा मानव बनाती है। और मानव तभी अच्छा बन सकता है जब वह स्वतंत्र है, उसकी संस्कृति स्वतंत्र है उसका भाषा तथा साहित्य स्वतंत्र है।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा)

लाल बहादुर शास्त्री (जीवन आदर्श, प्रतिभा) 

लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्म शारदा श्रीवास्तव प्रसाद, स्कूल अध्यापक व रामदुलारी देवी. के घर मुगलसराय(अंग्रेजी शासन के एकीकृत प्रान्त), में हुआ जो बादमें अलाहाबाद [1] के रेवेनुए ऑफिस में बाबू हो गए ! बालक जब 3 माह का था गंगा के घाट पर माँ की गोद से फिसल कर चरवाहे की टोकरी (cowherder's basket) में जा गिरा! चरवाहे, के कोई संतान नहीं थी उसने बालक को इश्वर का उपहार मान घर ले गया ! लाल बहादुर के माता पिता ने पुलिस में बालक के खोने की सुचना लिखी तो पुलिस ने बालक को खोज निकला और माता पिता को सौंप दिया[2].
बालक डेढ़ वर्ष का था जब पिता का साया उठने पर माता उसे व उसकी 2 बहनों के साथ लेकर मायके चली गई तथा वहीँ रहने लगी[3]. लाल बहादुर 10 वर्ष की आयु तक अपने नाना हजारी लाल के घर रहे! तथा मुगलसराय के रेलवे स्कुल में कक्षा IV शिक्षा ली, वहां उच्च विद्यालय न होने के कारण बालक को वाराणसी भेजा गया जहाँ वह अपने मामा के साथ रहे, तथा आगे की शिक्षा हरीशचन्द्र हाई स्कूल से प्राप्त की ! बनारस रहते एक बार लाल बहादुर अपने मित्रों के साथ गंगा के दूसरे तट मेला देखने गए! वापसी में नाव के लिए पैसे नहीं थे! किसी मित्र से उधार न मांग कर, बालक लाल बहादुर नदी में कूदते हुए उसे तैरकर पार कर गए[4].
बाल्यकाल में, लाल बहादुर पुताकें पढ़ना भाता था विशेषकर गुरु नानक के verses. He revered भारतीय राष्ट्रवादी, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक .वाराणसी 1915 में महात्मा  गाँधी का भाषण सुनने के पश्चात् लाल बहादुर ने अपना जीवन देश सेवा को समर्पित कर दिया[5] !  महात्मा  गाँधी के असहयोग आन्दोलन 1921 में लाल बहादुर ने निषेधाज्ञा का उलंघन करते प्रदर्शनों में भाग लिया ! जिस पर उन्हें बंदी बनाया गया किन्तु अवयस्क होने के कारण छूट गए[6] ! फिर वे काशी विद्यापीठ वाराणसी में भर्ती हुए! वहां के 4 वर्षों में वे डा. भगवान दास के lectures on philosophy से अत्यधिक प्रभावित हुए! तथा राष्ट्रवादी में भर्ती हो गए ! काशी विद्यापीठ से 1926, शिक्षा पूरी करने पर उन्हें शास्त्री की उपाधि से विभूषित किया गया जो विद्या पीठ की सनातक की उपाधि  है, और उनके नाम का अंश बन गया[3] ! वे सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाईटी आजीवन सदस्य बन कर मुजफ्फरपुर में हरिजनॉं के उत्थान में कार्य करना आरंभ कर दिया बाद में संस्था के अध्यक्ष भी बने[8].
1927 में, जब शास्त्री जी का शुभ विवाह मिर्ज़ापुर की ललिता देवी से संपन्न हुआ तो भारी भरकम दहेज़ का चलन था किन्तु शास्त्रीजी ने केवल एक चरखा व एक खादी  का कुछ गज का टुकड़ा  ही दहेज़ स्वीकार किया ! 1930 में,महात्मा  गाँधी के नमक सत्याग्रह के समय वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े, तथा ढाई वर्ष का कारावास हुआ[9]. एकबार, जब वे बंदीगृह में थे, उनकी एक बेटी गंभीर रूप से बीमार हुई तो उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग न लेने की शर्त पर 15 दिवस की सशर्त छुट्टी दी गयी ! परन्तु उनके घर पहुँचने से पूर्व ही बेटी का निधन हो चूका था ! बेटी के अंतिम संस्कार पूरे कर, वे अवधि[10] पूरी होने से पूर्व ही स्वयं कारावास लौट आये !  एक वर्ष पश्चात् उन्होंने एक सप्ताह के लिए घर जाने की अनुमति मांगी जब उनके पुत्र को influenza हो गया था ! अनुमति भी मिल गयी किन्तु पुत्र एक सप्ताह मैं निरोगी नहीं हो पाया तो अपने परिवार के अनुग्रहों (pleadings, के बाद भी अपने वचन के अनुसार वे कारावास लौट आये[10].
8 अगस्त 1942, महात्मा गाँधी ने मुंबई के गोवलिया टेंक में अंग्रेजों भारत छोडो की मांग पर भाषण दिया ! शास्त्री जी जेल से छूट कर सीधे पहुंचे जवाहरलाल नेहरु के hometown अल्लहाबाद और आनंद  भवन से एक सप्ताह स्वतंत्रता सैनानियों को निर्देश देते रहे ! कुछ दिन बाद वे फिर बंदी बनाकर कारवास भेज दिए गए और वहां रहे 1946 तक[12], शास्त्री जी कुलमिला कर 9 वर्ष जेल में रहे [13]. जहाँ वे पुस्तकें पड़ते रहे और इसप्रकार पाश्चात्य western philosophers, revolutionaries and social reformer की कार्य प्रणाली से अवगत होते रहे ! तथा मारी कुरी की autobiography का हिंदी अनुवाद भी किया[9].
आज़ादी के बाद 
भारत आजाद होने पर, शास्त्री जी अपने गृह प्रदेश उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव नियुक्त किये गए! गोविन्द  बल्लभ  पन्त के मंत्री मंडल के पुलिस व यातायात मंत्री बनकर पहली बार महिला कन्डक्टर की नियुक्ति की ! पुलिस को भीड़ नियंत्रण हेतु उन पर लाठी नहीं पानी की बौछार का उपयोग के आदेश दिए[14].
1951 में राज्य सभा सदस्य बने तथा कांग्रेस महासचिव के नाते चुनावी बागडोर संभाली, तो 1952, 1957 व 1962 में प्रत्याशी चयन, प्रचार द्वारा जवाहरलाल  नेहरु को संसदीय चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त हुआ! केंद्र में 1951 से 1956 तक रेलवे व यातायात मंत्री रहे, 1956 में महबूबनगर की रेल दुर्घटना में 112 लोगों की मृत्यु के पश्चात् भेजे शास्त्रीजी के त्यागपत्र को नेहरुजी ने स्वीकार नहीं किया[15]! किन्तु 3 माह पश्चात् तमिलनाडू के अरियालुर दुर्घटना (मृतक 114) का नैतिक व संवैधानिक दायित्व मान कर दिए त्यागपत्र को स्वीकारते नेहरूजी ने कहा शास्त्री जी इस दुर्घटना के लिए दोषी नहीं[3] हैं किन्तु इससे संवैधानिक आदर्श स्थापित करने का आग्रह है ! शास्त्री जी के अभूत पूर्व निर्णय की की देश की जनता ने भूरी भूरी प्रशंसा की ! 
1957 में, शास्त्री जी संसदीय चुनाव के पश्चात् फिर मंत्रिमंडल में लिए गए, पहले यातायात व संचार मंत्री, बाद में वाणिज्य व उद्योग मंत्री[7] तथा 1961 में गृह मंत्री बने[3] तब क.संथानम[16] 
की अध्यक्षता में भ्रष्टाचार निवारण कमिटी गठित करने में भी विशेष भूमिका रही ! 
प्रधान मंत्री 
लाल बहादुर शास्त्री  जी  का नेतृत्व 
27 मई 1964 जवाहरलाल नेहरु की मृत्यु से उत्पन्न रिक्तता को 9 जून को भरा गया जब कांग्रेस अध्यक्षक. कामराज ने  प्रधान मंत्री पद के लिए एक मृदु भाषी, mild-mannered नेहरूवादी शास्त्री जी को उपयुक्त पाया तथा इसप्रकार पारंपरिक दक्षिणपंथी मोरारजी देसाई का विकल्प स्वीकार हुआ ! प्रधान मंत्री के रूप में राष्ट्र के नाम प्रथम सन्देश में शास्त्री जी ने को कहा[17]
हर राष्ट्र के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी होती है !.किन्तु हमें इसमें कोई कठिनाई या संकोच की आवश्यकता नहीं है! कोई इधर उधर देखना नहीं हमारा मार्ग सीधा व स्पष्ट है! देश में सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण से सबको स्वतंत्रता व वैभवशाली बनाते हुए विश्व शांति तथा सभी देशों के साथ मित्रता !
शास्त्री जी विभिन्न विचारों में सामंजस्य निपुणता के बाद भी अल्प अवधि के कारण देश के अर्थ संकट व खाद्य संकट का प्रभावी हल न कर पा रहे थे ! परन्तु जनता में उनकी लोकप्रियता व सम्मान अत्यधिक था जिससे उन्होंने देश में हरित क्रांति लाकर खाली गोदामों को भरे भंडार में बदल दिया ! किन्तु यह देखने के लिए वो जीवित न रहे, पाकिस्तान से 22 दिवसीय युद्ध में, लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया "जय जवान जय किसान" देश के किसान को सैनिक समान बना कर देश की सुरक्षा के साथ अधिक अन्न उत्पादन पर बल दिया! हरित क्रांति व सफेद (दुग्ध) क्रांति[16] के सूत्र धार शास्त्री जी अक्तू.1964 में कैरा जिले में गए उससे प्रभावित होकर उन्होंने आनंद का देरी अनुभव से सरे देश को सीख दी तथा उनके प्रधानमंत्रित्व काल 1965 में नेशनल देरी डेवेलोपमेंट बोर्ड गठन हुआ ! 
समाजवादी होते हुए भी उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था को किसी का पिछलग्गू नहीं बनाया[16]. अपने कार्य काल 1965[7] में उन्होंने भ्रमण किया रूसयुगोस्लावियाइंग्लैंडकनाडा व बर्मा
पाकिस्तान से युद्ध 
भारत पाकिस्तानी युद्ध 1965
पाकिस्तान ने आधे कच्छ, पर अपना अधिकार जताते अपनी सेनाएं अगस्त 1965 में भेज दी, which skirmished भारतीय टेंक की कच्छ की मुठभेढ़ पर लोक सभा में, शास्त्री जी का वक्तव्य[17]:
“ अपने सीमित संसाधनों के उपयोग में हमने सदा आर्थिक विकास योजना तथा परियोजनाओं को प्रमुखता दी है, अत: किसी भी चीज को सही परिपेक्ष्य में देखने वाला कोई भी समझ सकता है कि भारत की रूचि सीमा पर अशांति अथवा संघर्ष का वातावरण बनाने में नहीं हो सकती !... इन परिस्थितियों में सरकार का दायित्व बिलकुल स्पष्ट है और इसका निर्वहन पूर्णत: प्रभावी ढंग से किया जायेगा ...यदि आवश्यकता पड़ी तो हम गरीबी में रह लेंगे किन्तु देश कि स्वतंत्रता पर आँच नहीं आने देंगे!  ”
  ( It would, therefore, be obvious for anyone who is prepared to look at things objectively that India can have no possible interest in provoking border incidents or in building up an atmosphere of strife... In these circumstances, the duty of Government is quite clear and this duty will be discharged fully and effectively... We would prefer to live in poverty for as long as necessary but we shall not allow our freedom to be subverted.)
पाकिस्तान कि आक्रामकता का केंद्र है कश्मीर. जब सशस्त्र घुसपैठिये पाकिस्तान से जम्मू एवं कश्मीर राज्य में घुसने आरंभ हुए, शास्त्री जी ने पाकिस्तान को यह स्पष्ट कर दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जायेगा[18] अभी सित.1965 में ही पाक सैनिकों सहित सशस्त्र घुसपैठियों ने सीमा पार करते समय सब अपने अनुकूल समझा होगा, किन्तु ऐसा था नहीं और भारत ने भी युद्ध विराम रेखा (अब नियंत्रण रेखा) के पार अपनी सेना भेज दी है तथा युद्ध होने पर पाकिस्तान को लाहौर के पास अंतर राष्ट्रीय सीमा पर करने कि चेतावनी भी दे दी है! टेंक महा संग्राम हुआ पंजाब में , and while पाकिस्तानी सेनाओं को कहीं लाभ हुआ, भारतीय सेना ने भी कश्मीर का हाजी पीर का महत्त्व पूर्ण स्थान अधिकार में ले लिया है, तथा पाकिस्तानी शहर लाहौर पर सीधे प्रहार करते रहे! 
17 सित.1965, भारत पाक युद्ध के चलते भारत को एक पत्र  चीन से मिला. पत्र में, चीन ने भारतीय सेना पर उनकी सीमा में सैन्य उपकरण लगाने का आरोप लगाते, युद्ध की धमकी दी अथवा उसे हटाने को कहा जिस पर शास्त्री जी ने घोषणा की "चीन का आरोप मिथ्या है! यदि वह हम पर आक्रमण करेगा तो हम अपनी अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सक्षम हैं"[19]. चीन ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया किन्तु भारत पाक युद्ध में दोनों ने बहुत कुछ खोया है! .
भारत पाक युद्ध समाप्त 23 सित.  1965 को संयुक्त राष्ट्र-की युद्ध विराम घोषणा से हुआ. इस अवसर पर प्र.मं.शास्त्री जी ने कहा[17]:
“ दो देशों की सेनाओं के बीच संघर्ष तो समाप्त हो गया है संयुक्त राष्ट्र- तथा सभी शांति चाहने वालों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है is to bring to an end the deeper conflict... यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? हमारे विचार से, इसका एक ही हल है शांतिपूर्ण सहा अस्तित्व! भारत इसी सिद्धांत पर खड़ा है; पूरे विश्व का नेतृत्व करता रहा है! उनकी आर्थिक व राजनैतिक विविधता तथा मतभेद कितने भी गंभीर हों, देशों में शांतिपूर्ण सहस्तित्व संभव है !  ” 
ताश कन्द का काण्ड 
युद्ध विराम के बाद, शास्त्री जी तथा  पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुहम्मद अयूब खान वार्ता के लिए ताश कन्द (अखंडित रूस, वर्तमान उज्बेकिस्तान) अलेक्सेई कोस्य्गिन के बुलावे पर 10 जन.1966 को गए, ताश कन्द समझौते पर हस्ताक्षर किये! शास्त्री जी को संदेह जनक परिस्थितियों में मृतक बताते, अगले दिन/रात्रि के 1:32 बजे [7]  हृदयाघट का घोषित किया गया ! यह किसी सरकार के प्रमुख की सरकारी यात्रा पर विदेश में मृत्यु की अनहोनी घटना है[20]
शास्त्री जी की मृत्यु का रहस्य ?
शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु पर उनकी विधवा पत्नी ललिता शास्त्री  कहती रही कि उनके पति को विष दिया गया है. कुछ उनके शव का नीला रंग, इसका प्रमाण बताते हैं.शास्त्री जी को विष देने के आरोपी रुसके रसोइये को बंदी भी बनाया गया किन्तु वो प्रमाण के अभाव में बच गया[21]
2009 में, जब अनुज धर, लेखक CIA's Eye on South Asia, RTI में  (Right to Information Act) प्रधान मंत्री कार्यालय से कहा, कि शास्त्री जी की मृत्यु का कारण सार्वजानिक किया जाये, विदेशों से सम्बन्ध बिगड़ने की बात कह कर टाल दिया गया देश में असंतोष फैलने व संसदीय विशेषाधिकार का उल्लंघन भी बताया गया[21]
PMO ने इतना तो स्वीकार किया कि शास्त्री जी कि मृत्यु से सम्बंधित एक पत्र कार्यालय के पास है! सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि शव की रूस USSR में post-mortem examination जाँच नहीं की गई, किन्तु शास्त्री जी के वैयक्तिगत चिकित्सक  डा. र.न.चुघ ने जाँच कर रपट दी थी! किस प्रकार हर सच को छुपाने का मूल्य लगता है और सच का झूठ / झूठ का सच यहाँ सामान्य प्रक्रिया है कुछ भ हो सकता है[21]
स्मृतिचिन्ह 
आजीवन सदाशयता व विनम्रता के प्रतीक माने गए, शास्त्री जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, व दिल्ली के "विजय घाट" उनका स्मृति चिन्ह बनाया गया ! अनेकों शिक्षण सस्थान, शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक संसथान National Academy of Administration (Mussorie) तथा शास्त्री इंडो -कनाडियन इंस्टिट्यूट अदि उनको समर्पित हैं[22]
"भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक